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Sunday, April 17, 2011

सरकार बताये कितने 'विनायक सेन' जेलों में बंद हैं?

पिछले 4 सालों से न्याय के तमाम दरवाजे खटखटाने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने जब विनायक सेन की जमानत अर्जी मंजूर की तो लगा कि भले ही न्यायिक प्रक्रिया सवालों के घेरे में हों लेकिन न्याय अभी जिंदा है| हालाँकि यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि क्या निचली अदालतें न्याय को पहचानने में असमर्थ हैं या फिर वह किसी दबाव में काम कर रही हैं? क्योंकि जिन तर्कों को सुप्रीम कोर्ट ने सिरे से खारिज कर दिया, ज़ाहिर है वह तर्क निचली अदालतों में भी दिए गए होंगे, तो फिर आखिर जमानत के लिए ४ साल क्यों इंतज़ार करना पड़ा?

दरअसल विनायक सेन उस गन्दी सियासत के शिकार हुए हैं जिनपर हम गर्व करते हैं| देशद्रोह का गंभीर आरोप झेल रहे विनायक सेन का जुर्म बस इतना था कि उन्होंने नक्सलवादियों के साथ सहानुभूति रखी थी और उनके आंदोलन सलवा जुडूम का समर्थन किया था| छतीसगढ़ के रमण सिंह सरकार को यह बात नागवार गुजरी और उनके खिलाफ़ तमाम धाराओं को लगाकर उनपर देशद्रोह का मुकदमा चला दिया| जबकि सही मायने में नक्सलवादियों को खाद पानी उसी बहरी सियासत के रहनुमा पहुंचाते हैं लेकिन चूँकि वह शासन सत्ता की बागडोर थामे हुए हैं इसलिए उनके खिलाफ़ मुकदमा चल ही नहीं सकता| दूसरी तरफ विनायक सेन जैसे लोगों पर ठीकरा फोडकर सरकारें अपनी जिम्मेदारी से बचना चाहती है|

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर हम संतोष कर सकते हैं कि उसने न्याय की मर्यादा की रक्षा की लेकिन देश के विभिन्न हिस्सों में कई ऐसे विनायक सेन बंद हैं जिनके ऊपर नक्सली होने का आरोप है जबकि निर्दोष हैं, उनकी रिहाई की पैरवी कौन करेगा? अगर सरकारों का मतलब निजी खुन्नस निकालना ही है(रमन सिं पर ऐसा आरोप है) तो ऐसे व्यवस्था का नाम लोकतंत्र रखने का औचित्य क्या है और फिर यह क्यों कहें कि लोकतंत्र जनता का शासन है? विनायक सेन के मामले में हम यह कह सकते हैं कि उनके अंदर इतनी जिजीविषा थी और कुछ हद तक पैसा था कि वो सुप्रीम कोर्ट तक अपनी बात पहुंचा सके लेकिन देश के कितने लोग सुप्रीम कोर्ट पहुँच सकते हैं? क्या सरकारें बता सकती हैं? और फिर वह अपने आप को निर्दोष साबित करने के लिए क्या करें?

आज अगर नक्सली समस्या अपनी जड़ें गहराई तक जमा चुकी हैं तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है? निहायत ही सरकारों का नाम सबसे पहले आता है| कभी अपने राजनीतिक फायदे के लिए तो कभी निजी स्वार्थ के लिए राजनीतिक पार्टियां और नेता उनका इस्तेमाल करते हैं| अन्याय के खिलाफ नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ आन्दोलन भले ही आज अपने उद्देश्य से भटक चुका हो लेकिन कई ऐसे नक्सल प्रभावित क्षेत्र हैं जहाँ गाँव के लोगों को सरकार से ज्यादा भरोसा नक्सलियों पर होता है| आर्थिक असमानता, गरीबी, पैसे और पॉवर का धौंस दिखाकर मजलूमों पर अत्यचार ऐसे तमाम कारण हैं जो लोगों को इस व्यवस्था से नाराज करते हैं और इसका विकल्प ढूंढने की कोशिश में वह नक्सली नेताओं को अपना सब कुछ समझ बैठते हैं| ध्यान रहे कि इन तमाम बातों पर गौर करने की जिम्मेदारी एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सरकार पर होती है लेकिन क्या सरकारें ऐसा करती हैं? ऐसे में अगर एक विनायक सेन को फाँसी पर भी लटका दिया जाए तो क्या नक्सली समस्या खत्म हो जायेगी?

गिरिजेश कुमार

Wednesday, April 13, 2011

समाज का शर्मनाक सच!

17 साल तक पूरे परिवार ने चीख-चीख कर कहा कि उसे जीने का जरिया दिया जाये, लेकिन जब कंपनी प्रबंधन का दिल नहीं पसीजा तो मजबूर होकर आखिरकार पूरे परिवार ने मौत को गले लगा लिया| उस परिवार ने जीने का जरिया यानि नौकरी भी खैरात में नहीं माँगी थी, 35 साल तक उस घर के मुखिया ने भिलाई स्टील प्लांट में डेप्युटी मैनेजर के तौर पर नौकरी की थी और उसकी मृत्यु के बाद उसका परिवार आर्थिक तंगहाली को झेल रहा था| भिलाई के इस परिवार की हालत कुछ ऐसी ही थी जैसे किसी पक्षी को पिंजरे में बंद कर उड़ने कहा जाये| दूसरी घटना है नोएडा की, जहाँ दो बहनों ने अपने ही घर को काल कोठरी में तब्दील कर लिया था| एक सड़क हादसे में बाप की मृत्यु हो गई और फिर माँ भी चल बसी| भाई का सहारा था लेकिन शादी के बाद उसने भी किनारा कर लिया| अपने कुत्ते छोटू को परिवार का सदस्य मान लिया मगर जब उसकी भी मौत हो गई तो दोनों बहने अंदर से टूट गई| ऐसा सदमा लगा कि ७ महीने तक सूरज नहीं देखा| खुशहाल परिवार में पली उन दोनों बहनों की ज़िंदगी में रिश्तों और भावनाओं को आहत कर देने वाली ऐसी आंधी चली कि वे जिंदा लाश बन गयी| कहने वाले इसे अजीब दास्तान कहेंगे लेकिन एक इंसान के तौर पर सोचें तो यह आपको अंदर से झकझोर देगी|

जी, ये उस सभ्य समाज की सनातन हकीकत है जिसे हम नज़रंदाज़ करने की कोशिश करते हैं, या यों कहें कि यह उस समाज का शर्मनाक सच है जिसे हम विकास की खोखली चादर तले ढंकना चाहते हैं, छुपाना चाहते हैं| ये दोनों घटनाएँ आधुनिक भारत के उन चमचमाती शहरों में घटी हैं, जिसकी हम मिसाल देते हैं| यह उस विकास की कड़वी सच्चाई को भी बयाँ करती है जहाँ हम आधुनिकता और शहरी चकाचौध में इतने खो गए हैं कि हमें अपने पडोसी के दर्द से भी कोई लेना देना नहीं रह गया है| लेकिन यह सिर्फ़ भिलाई और नोएडा की कहानी नहीं है, आज देश के तक़रीबन हर छोटे बड़े शहरों में ऐसे कई भिलाई मिल जायेंगे जिसकी सच्चाई वहीँ दीवार के किसी कोने में दफ़न होकर रह जाती है| सीधे शब्दों में कहें तो ऐसी घटनाएँ कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक के हर उस शहर में घट रही है जिसपर हम गर्व करते हैं| सवाल है कैसे कोई व्यवस्था एक पूरे परिवार को चंद कागज के टुकड़ों की मोहताज़ बनाये रख सकती है और कैसे इंसानी समाज अपनी मानवीय संवेदनाएं भूलकर इंसानों को ही अपनी ज़िंदगी का दुश्मन समझने लगता है? ये ऐसे सवाल हैं जिसकी गहराई से पड़ताल हमें करनी होगी|

दरअसल इंसानी रिश्तों को झकझोर देने वाली ऐसी घटनाओं के बाद सवाल उस सामाजिक व्यवस्था पर उठना लाजिमी हो जाता है जिसके द्वारा समाज की गतिविधि संचालित होती है| कठघरे में वो सरकारें भी आती हैं जिसे जनता का सेवक कहा जाता है| अगर वास्तविकता को सच की कसौटी पर कसा जाये तो यह हकीकत सामने आती है कि दरअसल हम छोटे- छोटे कस्बों को भी महानगरीय सांचे में ढाल कर एक विकसित राष्ट्र बनने का सपना भले ही देख रहे हों लेकिन देश को महानगरीय संस्कृति के दुष्प्रभाव से बचाने में असक्षम हैं| हालाँकि यह भी सच है जब सत्ता- सरकार ही कुछ लोगों के पाप को छिपाने के लिए करोड़ों लोगों के हक की कुंडली मारकर बैठ जाए तो ऐसे में आम आदमी की फ़िक्र किसे है? स्थिति ये है कि सहमी हुई सलवटों के नीचे तेज हो रही हैं सरगोशियाँ| ऐसे हालात में अगर पूरा परिवार ख़ुदकुशी करता है तो दोषी कौन है?

इस मार्मिक और व्यवस्था के प्रति आक्रोश से भर देने वाली घटना की तपिश को महसूस कर रहे हर सचेत नागरिक का यह कर्तव्य्य है कि वह भ्रष्ट और घुन की तरह सड चुके इस सामाजिक व्यवस्था को बदलने के लिए अपने स्तर से कदम उठायें| ताकि फिर कोई परिवार ख़ुदकुशी करने और कोई इंसान घर को काल कोठरी बनाने पर मजबूर ना हो|

गिरिजेश कुमार

Sunday, April 10, 2011

भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आंदोलन और उसके हश्र से ऊपजे सवाल

भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन को जिस तरह से समर्थन और प्रसिद्धि मिली वह अभी भी लोगों की लड़ाई में आस्था और सामाजिक समस्याओं के खिलाफ़ एकजुट होने की प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करती है| जन लोकपाल बिल की मांग को लेकर आमरण अनशन पर बैठे प्रसिद्द सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के आगे सरकार को झुकना पड़ा और सारी मांगे मानने को विवश होना पड़ा| दरअसल मामला भ्रष्टाचार का था और इस घुन से समाज के हर तबके के लोग आहत थे, इसलिए इसे समर्थन लाजिमी था| अन्ना हजारे ने इसे आम जनता की जीत बताया तो कुछ लोगों ने इसे गाँधीवाद और गांधीजी के सिद्धान्तों की जीत कहा| लेकिन एक महत्वपूर्ण सवाल यहाँ यह उठता है कि समझौतों की राजनीति से आम आदमी का कितना भला होगा? और क्या इससे आम आदमी की समस्याएं हल हो सकती हैं? सबसे बड़ा सवाल तो यह है क्या भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा? दरअसल अन्ना ने जो मांग रखी थी उसे तो मान लिया गया लेकिन आर पार की लड़ाई की जो संभावना दिखाई दे रही थी वह एक बार फिर धूमिल हो गई|

इस जंग को आजादी की दूसरी लड़ाई कहा गया और मीडिया का भी इसे अप्रत्याशित समर्थन प्राप्त हुआ| इस लड़ाई को अगर राजनीतिक नजरिये से देखा जाए तो यह सिर्फ़ एक प्रायोजित कार्यक्रम लगता है| यहाँ अन्ना हजारे पर कीचड़ उछालने का मेरा कोई मकसद नहीं है, वे एक ईमानदार, जुझारू और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति हैं, उनकी इज्ज़त हममे से सभी करते हैं, लेकिन जिस लड़ाई की चिंगारी को अन्ना हजारे ने हवा दी उसका हश्र कई सवाल खड़े करता है| राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की वेबसाइट पर दी गई जानकारी के अनुसार अनशन शुरू करने से पहले अन्ना हजारे से प्रधानमन्त्री की १५ मिनट की बातचीत हुई और इससे पहले लोकपाल बिल के मसौदे पर सोनिया गाँधी के साथ भी बैठक हुई थी| एक और बात लोकपाल बिल तैयार करने के लिए जो कमिटी बनी है उसमे सिविल सोसायटी के जो लोग हैं वो सोनिया गाँधी की अध्यक्षता में चलने वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में भी हैं| फिर इस बिल के बनने या ना बनने से क्या फर्क पड़ने वाला है? सोचने वाली बात है|

सत्याग्रह और अहिंसा के गाँधी जी के जिस रास्ते को अपना कर अन्ना हजारे ने समाज से भ्रष्टाचार को मिटाना चाहा उस रास्ते के पैर जंजीरों से इस तरह बंधे हुए हैं कि समाधान का सही रास्ता निकलना नामुमकिन है| इतिहास के पन्नों को अगर बारीकी से पलटें तो यह बात सामने आती है कि समझौतों ने इस देश को गर्त में धकेलने का ही काम किया| आजादी आंदोलन के समय अंग्रेजी सरकार से समझौतों की राजनीति ने देश की आजादी को दशकों पीछे धकेल दिया था| इसलिए असहयोग आंदोलन की वापसी पर इस देश के करोड़ों नौजवानों का विश्वास गाँधी जी के आन्दोलनों से उठ गया था| और भगत सिंह जैसे उर्जावान युवकों ने अपनी तरफ से लड़ाई लड़ने का आह्वान किया था| देश के बंटवारे से लेकर अराजकता और कश्मीर जैसी समस्या इसी समझौतावादी नीतियों का परिणाम है जिसका खामियाजा आने वाली कई पीढियों को मजबूरन भुगतना पड़ेगा| दरअसल इतिहास का हवाला देकर गाँधी जी और उनके प्रयासों या सिद्धांतों पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करना मेरा उद्देश्य नहीं है| लेकिन जिन रास्तों ने समस्याओं को बढ़ावा दिया उन रास्तों पर चलकर देश को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने का सपना देखना कहाँ तक उचित है? क्या भ्रष्टाचार कानून का मसला है?

आज ज़रूरत इस बात की है कि वर्तमान व्यवस्था की खामियों को उजागर कर उसे दूर करने के प्रयास किये जाएँ| जनता को अब आर पार की लड़ाई लड़ने की ज़रूरत है| यह विडंबना ही है लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जनता सड़कों पर भटकने को विवश है और नेता आलिशान बंगलों में रहते हैं इस असमानता को दूर सत्याग्रह के द्वारा नहीं किया जा सकता| इसे लड़कर ही हासिल किया जा सकता है| इसलिए अगर एक सुन्दर, स्वच्छ और भ्रष्टमुक्त समाज का निर्माण करना है तो जनता को सीधी लड़ाई, इस व्यवस्था के तथाकथित रहनुमाओं से लड़नी पड़ेगी|

गिरिजेश कुमार

Thursday, April 7, 2011

“बहरों को सुनाने के लिए धमाके ज़रूरत होती है”

“बहरों को सुनाने के लिए धमाके की ज़रूरत होती है” ये उस पर्चे की पहली पंक्ति थी जिसे भगत सिंह और उनके साथियों ने 8 अप्रेल 1929 को एसेम्बली में बम फेंकने के बाद उछाला था| यह संयोग ही है 82 साल पहले बहरी अंग्रेजी सरकार को जगाने के लिए भगत सिंह ने एसेम्बली में बम फेंका था और आज अन्ना हजारे बहरी सरकार को जगाने के लिए ही आमरण अनशन कर रहें हैं| फर्क सिर्फ़ इतना है कि अंग्रेजी सरकार की जग भारतीय सरकार है और बम की जगह अनशन का हथियार| उद्देश्य समान है और जनता का समर्थन भी|

भ्रष्टाचार के खिलाफ़ शुरू हुई इस सबसे बड़ी जंग में राजनीतिक पार्टियां अपने फायदे को ढूंढने की कुत्सित कोशिश कर रही हैं| आजादी के 63 साल के बाद भी जो पार्टियां भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सख्त क़ानून नहीं बना पायी, आज राजनीतिक लाभ के लिए अन्ना हजारे के समर्थन में खड़ी हो रही हैं| वर्तमान भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था का यही सबसे घिनौना चेहरा है| दरअसल 73 साल के अन्ना हजारे हिंदुस्तान की बहरी सियासत के सामने उस घुन की दवा मांगने आये हैं जिसने पुरे मुल्क को खोखला बना दिया है| ये उस दधिची की चेतावनी है जिसने अपनी उम्र अन्याय के खिलाफ़ आवाम की आँखें खोलने में गुजार दी|

दिल्ली के जंतर मंतर में जुटी भीड़ किसी विश्व कप के जीतने का जश्न मनाने सड़कों पर नहीं उतरी है| 6 दशकों से जिस चिंगारी को सीने में दबाए हुए लोग घुटन भरी जिंदगी जी रहे थे आज वही शोलों का रूप लेकर लोगों के दिलों में धड़क रहा है| इस आग में वर्तमान भ्रष्ट सरकार की चिता जला दी जाये तो कोई आतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए| आजादी के बाद बिना किसी राजनीतिक बैनर के तले लोग इतनी बड़ी संख्या में पहली बार नजर आ रहे हैं| यह बताता है कि भले ही आज लोग अपने और अपने परिवार तक संकुचित होकर रह गए हों लेकिन दिल के किसी कोने में देश और समाज के लिए कुछ करने की तमन्ना अभी भी जिंदा है|

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में भ्रष्टाचार किस तरह अपनी जड़ें जमा चुका है, आँकड़े इनकी खुलकर गवाही दे रहे हैं| देश में 16 जज, 86 आई ए एस, 145 सांसद और 1441 विधायकों पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं| लोकतान्त्रिक व्यवस्था की तीन महत्वपूर्ण अंग कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका पूरी तरह से भ्रष्टाचार की जद में घिर चुकी है| हालांकि यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था का विकल्प क्या होगा? बहरहाल इतना तो तय है कि अन्ना हजारे के इस आंदोलन ने देश के लोगों में एक विश्वास जगा है और वो इस उम्मीद में ज़रूर जी रहे हैं कि समाज इस भ्रष्ट व्यवस्था से छुटकारा ज़रूर मिलेगा|

गिरिजेश कुमार