![]() |
वो अस्पताल जिसमें आग लगी (तस्वीर-एपी) |
ज़िंदगी बचाने की जगह
मौत की कब्रगाह बन गया और किसी को इस बात का अफ़सोस नहीं है। पश्चिम बंगाल सरकार अपनी
सफाई दे रही है तो अस्पताल प्रशासन भी नहीं चाहता कि उसकी साख पर बट्टा लगे। ऐसे
में व्यवस्था पर भरोसा करने वाले लोग व्यवस्था की खामियों से असहज होकर अपना आपा
खो दें और फिर वही सरकार यह कहे कि देश के लोगों को शान्ति व्यवस्था भंग नहीं करनी
चाहिए तो समझना यह भी पड़ेगा कि आखिर ये माजरा है क्या?
विदित हो कि पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के ए एम् आर आई अस्पताल में 9 दिसम्बर की सुबह अचानक आग लग गयी थी जिसमे 89 लोगों के मरने की पुष्टि हो चुकी है। राहत कार्य अभी जारी है।
अपने रिश्तेदारों की बेहतरी के लिए जो लोग अस्पताल आए थे उन्होंने यह सपने में भी नहीं सोचा होगा कि ठीक होने से पहले ही अस्पताल प्रशासन की व्यवस्थागत खामियां उनकी कब्र खोद चुकी हैं। ज़िन्दगी जीने की आस कब मौत के आशियाने में शरण ले लेती है यह तो कोई भी नहीं जानता लेकिन इसके लिए जिम्मेदार अगर इंसानी लापरवाही हो तो ह्रदय क्षुब्ध हो जाता है। सवाल उठता है कि क्या अस्पताल चलाने वाले लोग सिर्फ़ मुनाफ़े के लिए अस्पताल चला रहे थे? ईलाज करा रहे दूर दराज से आए लोगों की सुरक्षा उनके लिए कोई मायने नहीं रखती थी? सवाल यह भी है कि आखिर अस्पताल में इतना बड़ा हादसा हुआ कैसे?
विदित हो कि पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के ए एम् आर आई अस्पताल में 9 दिसम्बर की सुबह अचानक आग लग गयी थी जिसमे 89 लोगों के मरने की पुष्टि हो चुकी है। राहत कार्य अभी जारी है।
अपने रिश्तेदारों की बेहतरी के लिए जो लोग अस्पताल आए थे उन्होंने यह सपने में भी नहीं सोचा होगा कि ठीक होने से पहले ही अस्पताल प्रशासन की व्यवस्थागत खामियां उनकी कब्र खोद चुकी हैं। ज़िन्दगी जीने की आस कब मौत के आशियाने में शरण ले लेती है यह तो कोई भी नहीं जानता लेकिन इसके लिए जिम्मेदार अगर इंसानी लापरवाही हो तो ह्रदय क्षुब्ध हो जाता है। सवाल उठता है कि क्या अस्पताल चलाने वाले लोग सिर्फ़ मुनाफ़े के लिए अस्पताल चला रहे थे? ईलाज करा रहे दूर दराज से आए लोगों की सुरक्षा उनके लिए कोई मायने नहीं रखती थी? सवाल यह भी है कि आखिर अस्पताल में इतना बड़ा हादसा हुआ कैसे?
हादसे के बाद पश्चिम
बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कहती हैं कि दमकल विभाग के अधिकारियों ने
अस्पताल को इस बात को लेकर चेताया था कि अस्पताल में आग से निबटने के पर्याप्त
प्रबंध नहीं है। वहीँ अग्निशमन मंत्री जावेद खान कहते हैं कि आग की शुरुआत अस्पताल
के तहखाने से हुई और यह तहखाना पूरी तरह अवैध है। ये बयान हादसे के कुछ ही घंटों बाद
आए हैं। ज़ाहिर है सरकार से लेकर मंत्री तक को इस बात की जानकारी थी कि अस्पताल में
आग जैसे हादसे से निबटने की तैयारी नहीं है फिर क्यों नहीं उसपर पहले कार्रवाई की
गई? क्या पश्चिम बंगाल सरकार ऐसे ही किसी हादसे का इंतज़ार कर रही थी?
दरअसल हमारी मशीनरी इतनी
अपरिपक्व है कि हम चाहकर भी ऐसे किसी घटना के अंजाम तक नहीं पहुंच पाते। इस घटना
की परिणति भी तय है। सरकार ने जाँच के आदेश दिए हैं लेकिन इन जाँच रिपोर्टों की
वास्तविकता फाइलों में कहीं गुम होकर अपना दम तोड़ देगी। ऐसे में जिन्होंने अपने
परिजनों को खोया, अपने रिश्तेदारों को बेमौत मरते देखा उनकी सुननेवाला कौन है?
सवाल यही है।
प्रशासनिक लापरवाही,
सरकारी अकर्मण्यता और सेवाओं पर भारी व्यक्तिवादी सोच हर बार आम निर्दोष लोगों की
जान लेता है। यहाँ इंसान की ज़िंदगी की कीमत तय होती है जो फूटपाथ पर बिकने वाले
किसी सस्ते और घटिया सामान से भी कम है। हर ऐसी घटना जो सीधे व्यवस्था की खामियों
पर सवाल उठाते हैं, उसके रहनुमा अपने आप को पाक साफ बताने की कोशिश करते हैं। कोई
भी उस मातमी सन्नाटे के पीछे झाँकने की कोशिश नहीं करता जहां उसके परिजनों की आँखे
दर्द, गम और रुसवाई से सूज चुकी होती हैं। कोई उसके दिल का हाल जानने की कोशिश
नहीं करता जिनके पास अब सिर्फ़ यादें बची हुई हैं। वर्तमान विकसित, समृद्ध और
आत्मनिर्भर भारतीय व्यवस्था की यही सबसे बड़ी खामी है।
सवाल यह नही है कि
जो हादसे हो चुके हैं उनपर कितना आंसू बहाया जाए और व्यवस्था को कितना कोसा जाए?
सवाल यह है कि जिन हालातों में ऐसी घटनाएँ होती हैं उन पर गंभीरता पूर्वक विचार
करके क्या कोई ठोस हल निकालने की कोशिश की जायेगी ताकि भविष्य में ऐसी घटनाएँ
दोबारा न घटे? और आम निर्दोष लोग बेवजह काल के गाल में न समायें?
गिरिजेश कुमार
कोलकाता के हादसे ने कितने ही लोगो की जान ले ली, बल्कि हमारे देश में तो रोज ही हज़ारों लोग इस तरह की लापरवाही तथा भ्रष्ठ तंत्र के शिकार बनते हैं. 'मेरा काम आसानी से होना चाहिए', और 'यहाँ तो ऐसे ही चलता है' जैसी सोच ही इस लापरवाही और भ्रष्ठ तंत्र की ज़िम्मेदार है.
ReplyDeleteकोलकाता जैसे हादसों के ज़िम्मेदार हम हैं!
स्वास्थ्य और शिक्षा की दूकानें संदेह के घेरे में आती जा रही हैं. ये देती कम हैं और लूट अधिक मचाती हैं.
ReplyDelete