कल आधी रात के बाद मेरे मोबाईल पर एक मैसेज आया-
“अन्ना के आंदोलन का एक साल पूरा हो गया। क्या बदल गया देश?” मेरा जवाब था “बड़े
परिवर्तन में वक्त लगता है। निरंतर संघर्ष से ही हमें विजय हासिल होगी। अगर आप
मानते हैं कि अन्ना का आंदोलन सही है, तो आपको भी इस लड़ाई को आगे बढ़ाने की
जिम्मेदारी उठानी चाहिए। और ये लड़ाई देश को बदलने के लिए नहीं एक कानून की माँग को
लेकर थी। जो अभी जारी है। देश बदलने की लड़ाई आपको ही लड़नी पड़ेगी।“ दरअसल हममें से
ज्यादातर लोग इस बात को समझ बैठे हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ़ मजबूत लोकपाल को लेकर
जो लड़ाई ठीक एक साल पहले छेड़ी गयी वह अन्ना का आंदोलन है, और हमें तमाशबीन बनकर
सिर्फ़ सवाल उठाना है। यानी कुछ भी कहो लेकिन सही हम ही हैं, और हम कहते थे कि कुछ
भी बदलने वाला नहीं है, वाली मानसिकता पूरे समाज में इस तरह से गहरी पैठ बना चुकी है कि इससे बाहर निकलना एक अनसुलझी पहेली
बन गयी है। यहाँ मसला सिर्फ़ अन्ना के आंदोलन का ही नहीं है, सामाजिक कुरीतियों के
अबतक समाज में बने रहने के पीछे भी यही मानसिकता है। सवाल है फिर लड़ेगा कौन? भ्रष्टाचार
से लोग किस तरह से त्रस्त हैं, यह बात सड़कों पर उतरी लाखों की भीड़ ने साबित कर
दिया है लेकिन पहल की जिम्मेदारी कितने लोग लेते हैं? सवाल यही है।
दरअसल 73 साल के अन्ना हजारे हिन्दुस्तान की
बहरी सियासत के सामने उस घुन की दवा माँगने आए थे, जिसने पूरे मुल्क को खोखला बना
दिया है। 5 अप्रैल को जंतर-मंतर पर अनशन उस दधिची की चेतावनी थी जिसने अपनी उम्र
अन्याय के खिलाफ़ आवाम की आँखें खोलने में गुजार दी। पिछले छः दशकों से जिस चिंगारी
को पूरा समाज अपने सीने में दबाए जी रहा था, उसी चिंगारी को हवा देते हुए जब एक
बूढ़े ने सरकार से साफ़ लफ़्ज़ों में कहा कि सम्राट आँखें खोलो, तो शायद पहली बार
सरकार को उसकी हैसियत का अंदाज़ा लगा। आजादी के बाद बिना किसी राजनीतिक बैनर के लोग
सड़कों पर इतनी बड़ी संख्या में पहली बार उतरे थे, सुसुप्तावस्था से जागने के लिए
क्या इतना काफी नहीं था। अभी भी जो लोग सवाल उठा रहे हैं उन्हें क्या खुद से यही
सवाल नहीं करना चाहिए?
पिछले एक साल में तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद लोगों
की भागीदारी राजनीतिक जागरूकता का परिचय देती हैं। यह सच है कि लड़ाई के एक साल बाद
भी उद्देश्य पूरा नहीं हुआ है लेकिन क्या यह सरकार की नाकामी नहीं है? याद कीजिये
पिछली बार संसद कब एक जुट हुई थी? जब सांसदों के खिलाफ़ आपत्तिजनक टिप्पणी हुई। इस
टिप्पणी को हम नजरंदाज भी करें तो क्या यह सवाल सांसदों से नहीं पूछा जाना चाहिए
कि आपकी यही एकजुटता उस समय क्यों नहीं दिखती जब मंहगाई पर चर्चा होती है, जब गरीबी
से निजात के रास्ते निकालने पर चर्चा होती है। जब जनता के हित के लिए सवाल पूछने
की बारी आती है। उलटे आप सदन से अनुपस्थित रहते हैं। ज़ाहिर है संसदीय प्रणाली में कानून
बनाने की जिम्मेदारी संसद की है लेकिन संसद को इस जिम्मेदारी का ख्याल पिछले बयालीस
सालों में क्यों नहीं आया?
आज जबकि हर दिन एक नया घोटाला सामने आ रहा है तो
भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सख्त कानून की प्रासंगिकता और बढ़ गयी है। लेकिन बड़ा सवाल है
कि इसे समझेगा कौन? आम जनता का पाला कनिमोंझी, कलमाड़ी और ए राजा जैसे तथाकथित बड़े लोगों
से नहीं पड़ता उसे सरकारी दफ्तरों में बैठे
अधिकारी से काम होता है जहाँ से उसे आवासीय और जाति प्रमाण पत्र जैसे ज़रुरी कागजात
बनाने पड़ते हैं। विडम्बना यह है कि उसके लिए उन्हें घुस देना पड़ता है। इस स्तर के
भ्रष्टाचार को दूर करने की जरुरत है। ज़ाहिर एक कानून भ्रष्टाचार दूर नहीं कर सकता,
लेकिन बाकी बातें बाद में भी हो सकती है पहले कानून बनना चाहिए।
गिरिजेश कुमार
सच कोई भी सूरत इतनी जल्दी नहीं बदल जाती
ReplyDeleteसुधार एक बहुत ही धीमी गति से चलने वाली जटिल प्रक्रिया होती है....
जाने कितने ही मोड़ आते हैं..
बहुत बढ़िया लिखा है आपने ..
कुछ सालों पहले आई फिल्म चाइना गेट के खलनायक का डायलॉग था "जगीरा से लड़ने की हिम्मत तो तुम जुटा लोगे लेकिन कमीनापन कहां से लाओगे।"
ReplyDeleteआपको क्या लगता है टीम अन्ना के सामने भी अब यही स्थिति आने वाली है.....।
सही कहा गिरिजेश भाई, बदलाव आने में वक्त तो लगता ही है। और आपकी इस बात को भी कोई इनकार नहीं कर सकता कि भ्रष्टाचार के खिलाफ एक अच्छे कानून की प्रासंगिकता तो बढ ही गई है।
ReplyDeleteएक सशक्त लेखनी के लिए हार्दिक शुभकामनाएं।
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डायन का तिलिस्म!
हर अदा पर निसार हो जाएँ...
अच्छा आलेख!
ReplyDeleteवर्तमान हालाल का सही आकलन पेश किया है आपने!
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