अन्ना का आंदोलन तो टाँय-टाँय फिस्स हो गया न?
कंप्यूटर पर कुछ ज़रुरी काम करने के दौरान एक पुराने मित्र का फोन पर यही पहला सवाल
था। कई दिनों के बाद अचानक आए फोन पर इस सवाल ने थोड़ी देर के लिए तो मुझे भी सकते
में डाल दिया। फिर जवाब दिया अभी अधीर होने की ज़रूरत शायद नहीं है क्योंकि जिस कानून
की माँग को लेकर इस आंदोलन की शुरुआत हुई थी उसके लिए संसद के शीतकालीन सत्र तक का
इंतज़ार तो करना पड़ेगा। उसके पहले किसी निष्कर्ष पर पहुँचना जल्दबाजी कही जायेगी। बहरहाल
जवाब में कुछ भी कहा जाए लेकिन यह सवाल उस आम आदमी की निराशा को भी प्रदर्शित करता
है जिसके मन में भ्रष्टाचार के खात्मे की उम्मीद जगी थी। हालाँकि यह सच है कि बड़ी
लड़ाई लड़ने में वक्त लगता है और इस दरम्यान हमें कई पड़ाव भी पार करने पड़ते हैं।
लेकिन भ्रष्टाचार नामक जिस घुन की दवा माँगने अन्ना हजारे आए थे उसके अंजाम तक
पहुँचने से पहले ही जिस तरह से अन्ना के सहयोगियों में वैचारिक मतभेद सामने आ रहा
है उसने इस लड़ाई को पीछे ज़रूर धकेला है। सवाल है सदियों से दबे इस जनाक्रोश को सही
दिशा देने में कामयाबी हासिल क्यों नहीं हो सकी? इस सवाल पर अन्ना और उनके सहयोगियों
को भी आत्ममंथन की ज़रूरत है। दुनिया का इतिहास गवाह है कि समय-समय पर जनता का
आक्रोश जनउभारों के रूप में सामने आता रहा है। शासक वर्ग के खिलाफ़ भ्रष्टाचार के
बहाने उपजे इस आक्रोश को भी एक दिशा देने की ज़रूरत थी जो व्यवस्था परिवर्तन के लिए
ज़मीन तैयार करती। लेकिन इस लड़ाई की अगली
कतार में शामिल लोग भी वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के उस कुटिल नीति का शिकार हो
गए जिसमें व्यक्तिवाद प्रमुख है। अरविन्द केजरीवाल, किरण बेदी और खुद अन्ना को
हमने अपने ऊपर लगे आरोपों के जवाब में आपा खोते हुए देखा है। अन्ना और उनके सहयोगियों
का ज्यादातर वक्त अब यह सफाई देने में बीतता है कि हमारे बीच कोई मतभेद नहीं है।
ऐसे में आम निरीह जनता के मन में ऐसे सवाल उठना जायज है। अन्ना टीम के प्रमुख
सदस्य प्रशांत भूषण के कश्मीर पर दिए विवादास्पद बयान के बाद से उभरा मतभेद हर दिन
एक नए रूप में सामने आ रहा है। इस मतभेद ने आम लोगों के मन में बनी साफ़ छवि को भी
आघात पहुँचाया है। जिसे समय रहते समझने की ज़रूरत है।
दूसरी तरफ़ जब अन्ना हर वर्ग और धर्म के लोगों को
कोर कमिटी में शामिल करने की बात करते हैं तो जाने अनजाने वह सदियों से कोढ़ की तरह
समाज में जड़ें जमाये हुए उसी रूढ़िवादी मानसिकता को ही बढ़ावा देते हैं जिसमे
जातिवाद प्रमुख हैं। किसी भी लड़ाई का आधार यह नहीं हो सकता कि उस टीम में शामिल
लोग अलग-अलग धर्मों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे या नहीं। या फिर वह किस जाति से
सम्बन्ध रखते हैं। व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई विचारों के आधार पर लड़ी जाती है।
इस तरह की लड़ाई पहली बार लड़ी जा रही है ऐसी बात
नहीं है। 1974 का छात्र आंदोलन इससे कहीं ज्यादा बड़ा और व्यापक पैमाने पर हुआ था।
उस वक्त भी मुद्दा भ्रष्टाचार था। लेकिन सम्पूर्ण क्रांति का जो नारा जयप्रकाश
नारायण ने दिया उसे सही ढंग से परिभाषित नहीं किया जा सका था। जिसका हश्र आज हमारे
सामने है। अन्ना के आंदोलन की तुलना जेपी के आन्दोलन से करना उचित नहीं है लेकिन
इतिहास की गलतियों से सीख लेना भी ज़रुरी है। किसी भी आंदोलन को जनांदोलन सिर्फ़
इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि उसमे बड़े पैमाने पर लोग शामिल हैं। दरअसल उस भीड़
में वैचारिक रूप से मजबुत और राजनीतिक चालों की गहरी समझ रखनेवाले कितने लोग हैं
यह समझना भी ज़रुरी है। वैचारिक रूप से लोगों को मजबूत बनाने की ज़िम्मेदारी उन
लोगों पर होती है जो आंदोलन के अगली कतार में शामिल होते हैं लेकिन दुर्भाग्य से
ऐसा नहीं हो पा रहा है। हालाँकि यह नहीं कहा जा सकता कि अन्ना का आंदोलन फेल हो
गया लेकिन बिखर रहे इस आंदोलन की कड़ियों को जोड़ना ज़रुरी है। अन्यथा भ्रष्टाचार
मुक्त समाज की कल्पना सिर्फ़ एक ख्वाब बनकर ही रह जायेगी।
गिरिजेश कुमार
कमी अन्ना के आंदोलन में नहीं है. सरकारी पक्ष काफी मज़बूत होता है. पहली बात तो यह है कि वह इसे सफल होते देखना नहीं चाहता. दूसरे अन्ना, बेदी, केजरीवाल के हाथों में इसकी कमान वह बुल्कुल भी नहीं देखना चाहता.
ReplyDeleteआपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
ReplyDeleteकृपया पधारें
चर्चा मंच-708:चर्चाकार-दिलबाग विर्क
लेख बहुत अच्छा और सटीक है |
ReplyDeleteबधाई |
आशा
मित्रों चर्चा मंच के, देखो पन्ने खोल |
ReplyDeleteआओ धक्का मार के, महंगा है पेट्रोल ||
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बुधवारीय चर्चा मंच ।
लगे रहिये.. आपके और आप जैसे अन्य बंधू बांधवों के प्रयास देर सबेर अवश्य सफल होंगे.
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