व्यवस्थाओं से निराश
होकर या वर्तमान हालात से तंग आकर, कारण चाहे कुछ भी हो, थप्पड़ चूँकि देश को चलाने
की तथाकथित ज़िम्मेदारी संभाले सरकार के मंत्री को पड़ी थी तो उसकी गूंज तो सुनाई
पड़नी ही थी। लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि इस थप्पड़ की सिर्फ़ गूंज ही सुनाई दे रही है
इसके निहितार्थों पर चर्चा नहीं की जा रही। शायद करना भी नहीं चाहते। लेकिन सवाल
यह है जब भी कोई घटना हमारे स्वभाव के विपरीत घटित होती हैं तो बजाये उसकी जड़
तलाशने के हम निजी निष्कर्ष पर पहुंच कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री क्यों समझ लेते
हैं? एक बात हमें साफ़ तौर पर समझ लेनी
चाहिए कि शरद पवार को थप्पड़ महज प्रचार पाने का हथकण्डा नहीं था। मंहगाई,
भ्रष्टाचार और अघोषित तानाशाही के खिलाफ जो चिंगारी आम जनमानस रूपी राख में दबी
हुई है उसे भड़काने की नापाक कोशिश एक ऐसे
शोले का रूप ले लेगी जिसे दबाना किसी भी शासक वर्ग के लिए आसान न होगा।
इसीलिए जब घोर साम्राज्यवादी अमेरिका के राष्ट्रपति पर मुंतज़र अल ज़ैदी ने जूता
फेंका था तो उसे वैश्विक समर्थन मिला था। और इसीलिए जब हरविंदर सिंह जैसा युवक
आवेश में किसी मंत्री को थप्पड़ मारता है तो असभ्य होते हुए भी हम सिर्फ़ उसे दोषी
नहीं ठहरा सकते।
माना कि एक सभ्य
लोकतान्त्रिक समाज में जनता के प्रतिनधि को खुलेआम थप्पड़ मारना कतई जायज़ नहीं है
लेकिन जो परिस्थितियां और जो हालात इस देश के सामने इन्ही भ्रष्ट नेताओं ने खड़े
किये हैं उसे आखिर बर्दाश्त कब तक किया जा सकता है? हर चीज़ की एक सीमा होती है
लेकिन हम यह क्यों भूल जाते हैं सीमा की भी एक सीमा होती है, जिसे लाँघने की कोशिश
नहीं की जानी चाहिए। हालाँकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि लोकतान्त्रिक
समाज में ऐसी प्रवृत्तियाँ विकसित होंगी तो किसी भी लोकतान्त्रिक संस्था का काम
करना मुश्किल हो जाएगा लेकिन ऐसी प्रवृत्तियाँ विकसित न हों इसके प्रयास की
ज़िम्मेदारी कौन लेगा? निहायत ही इसकी ज़िम्मेदारी उन्ही नेताओं को लेनी होगी जो देश
चलाते हैं और आखिरकार गुस्सा भी उन्ही के खिलाफ है।
दरअसल आम जनता किसी
फैसले पर तब पहुँचती है जब उसकी आशाओं, आकाँक्षाओं और भावनाओं के साथ खिलवाड़ होता
है। आज भले ही हम इस घटना की जितनी भी निंदा कर लें लेकिन हमें चर्चा लोगों की उन
मनोदशाओं पर भी करनी चाहिए जो उसे आपा खोने पर विवश करती है। इसे सिर्फ़ एक घटना
मान लेना भी गलत होगा क्योंकि थप्पड़ मारना हममें से किसी का भी शौक नहीं होता। यह
सच है कि हमें अपना विरोध दर्ज कराने के लिए लोकतान्त्रिक तरीकों का इस्तेमाल करना
चाहिए लेकिन धरना, प्रदर्शन और जुलुस जैसे विरोध के शुद्ध लोकतान्त्रिक तरीकों पर पुलिसिया ज़ुल्म इन्ही
नेताओं की शह पर होता है फिर अव्यवस्थाओं के भंवर में फँसा आम आदमी क्या करे? फिर
हम यह भी भूल नहीं सकते कि राहुल गाँधी को काले झंडे दिखा रहे युवकों को लतियाने
में मंत्री भी शामिल थे। फिर उन युवकों से हम संयम की उम्मीद क्यों करते हैं?
इन सबके बीच विचारणीय
यह भी है कि राजनीति पर जबतक स्वार्थनीति हावी रहेगा ऐसी घटनाएँ रोकी नहीं जा
सकती। इसलिए निजीहित को छोड़कर नेताओं को जनहित की तरफ़ भी ध्यान देना चाहिए। अन्यथा
यह कहना गलत न होगा कि शरद पवार को थप्पड़ सिर्फ़ एक बानगी भर है आगे लंबी कहानी है।
गिरिजेश कुमार
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