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Tuesday, July 13, 2010

मनुष्य के अस्तित्व पर खतरा

प्रकृति पर विजय पाने की मनुष्य की सदा से प्रवृत्ति रही है| इस महत्वाकांक्षा ने जहाँ एक तरफ मनुष्य को सफलता के शिखर पर पहुँचाया है वहीँ दूसरी तरफ अपनी इच्छाओं पर काबू न रख पाने की वजह से मनुष्य ही इस प्रकृति की सुंदरता का दोहन कर रहा हैं| हमें आश्चर्य होता है कि दुनिया का सर्वोत्तम कहा जाने वाला जीव मनुष्य अपनी बुद्धि पर घमंड कर जानवरों जैसा वर्ताव क्यों करने लगा?
इसका परिणाम आज हम अपनी आँखों से देख रहे है| पेड़ों के काटे जाने से जहाँ बाढ़ और सुखाड़ की स्थिति उत्पन्न हो गई है वहीँ कारखानों की चिमनियों से निकले धुंए और जहरीली गैसों से ग्लोबल वार्मिंग जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई है ,जो पृथ्वी को लील जाने को आतुर दिखाई दे रही है| और इसका जिम्मेदार मनुष्य भौतिकता की चकाचौंध में इतना अंधा हो चूका है कि उसे खुद अपना विनाश नज़र नहीं आ रहा है |
प्रकृति से सबसे ज्यादा छेड़छाड़ विकसित राष्ट्रों ने किया है लेकिन अब जबकि दुनिया के अस्तित्वा पर खतरा मंडरा रहा है तो वही लोग अपनी जिम्मेदारी से पीछे हट रहे हैं | जरूरत इस बात की है कि इंसानियत की रक्षा की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए पृथ्वी के अस्तित्व पर मंडरा रहे इस गंभीर खतरे का हल निकाला जाये ताकि मानव सभ्यता बची रहे |
करोड़ों रूपये खर्च कर हुए कोपनहेगन सम्मलेन से भी जो उम्मीद थी वह भी निरीह स्वार्थ के पैरों टेल कहीं दब कर रह गई| आज मनुष्य खुद से इतना दूर जा चूका है जहाँ इक्षाएं उसका पीछा नहीं छोडती| कहने वाले चाहे कुछ भी कहें लेकिन इतना तो तय है कि थोथी दलीलों से कभी समस्याएँ हल नहीं हो जाती अगर समस्या को हल करना है तो उसके लिए एक ठोस कार्ययोजना बनाकर उसपर अमल करने कि ज़रूरत है |

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