17 साल तक पूरे परिवार ने चीख-चीख कर कहा कि उसे जीने का जरिया दिया जाये, लेकिन जब कंपनी प्रबंधन का दिल नहीं पसीजा तो मजबूर होकर आखिरकार पूरे परिवार ने मौत को गले लगा लिया| उस परिवार ने जीने का जरिया यानि नौकरी भी खैरात में नहीं माँगी थी, 35 साल तक उस घर के मुखिया ने भिलाई स्टील प्लांट में डेप्युटी मैनेजर के तौर पर नौकरी की थी और उसकी मृत्यु के बाद उसका परिवार आर्थिक तंगहाली को झेल रहा था| भिलाई के इस परिवार की हालत कुछ ऐसी ही थी जैसे किसी पक्षी को पिंजरे में बंद कर उड़ने कहा जाये| दूसरी घटना है नोएडा की, जहाँ दो बहनों ने अपने ही घर को काल कोठरी में तब्दील कर लिया था| एक सड़क हादसे में बाप की मृत्यु हो गई और फिर माँ भी चल बसी| भाई का सहारा था लेकिन शादी के बाद उसने भी किनारा कर लिया| अपने कुत्ते छोटू को परिवार का सदस्य मान लिया मगर जब उसकी भी मौत हो गई तो दोनों बहने अंदर से टूट गई| ऐसा सदमा लगा कि ७ महीने तक सूरज नहीं देखा| खुशहाल परिवार में पली उन दोनों बहनों की ज़िंदगी में रिश्तों और भावनाओं को आहत कर देने वाली ऐसी आंधी चली कि वे जिंदा लाश बन गयी| कहने वाले इसे अजीब दास्तान कहेंगे लेकिन एक इंसान के तौर पर सोचें तो यह आपको अंदर से झकझोर देगी|
जी, ये उस सभ्य समाज की सनातन हकीकत है जिसे हम नज़रंदाज़ करने की कोशिश करते हैं, या यों कहें कि यह उस समाज का शर्मनाक सच है जिसे हम विकास की खोखली चादर तले ढंकना चाहते हैं, छुपाना चाहते हैं| ये दोनों घटनाएँ आधुनिक भारत के उन चमचमाती शहरों में घटी हैं, जिसकी हम मिसाल देते हैं| यह उस विकास की कड़वी सच्चाई को भी बयाँ करती है जहाँ हम आधुनिकता और शहरी चकाचौध में इतने खो गए हैं कि हमें अपने पडोसी के दर्द से भी कोई लेना देना नहीं रह गया है| लेकिन यह सिर्फ़ भिलाई और नोएडा की कहानी नहीं है, आज देश के तक़रीबन हर छोटे बड़े शहरों में ऐसे कई भिलाई मिल जायेंगे जिसकी सच्चाई वहीँ दीवार के किसी कोने में दफ़न होकर रह जाती है| सीधे शब्दों में कहें तो ऐसी घटनाएँ कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक के हर उस शहर में घट रही है जिसपर हम गर्व करते हैं| सवाल है कैसे कोई व्यवस्था एक पूरे परिवार को चंद कागज के टुकड़ों की मोहताज़ बनाये रख सकती है और कैसे इंसानी समाज अपनी मानवीय संवेदनाएं भूलकर इंसानों को ही अपनी ज़िंदगी का दुश्मन समझने लगता है? ये ऐसे सवाल हैं जिसकी गहराई से पड़ताल हमें करनी होगी|
दरअसल इंसानी रिश्तों को झकझोर देने वाली ऐसी घटनाओं के बाद सवाल उस सामाजिक व्यवस्था पर उठना लाजिमी हो जाता है जिसके द्वारा समाज की गतिविधि संचालित होती है| कठघरे में वो सरकारें भी आती हैं जिसे जनता का सेवक कहा जाता है| अगर वास्तविकता को सच की कसौटी पर कसा जाये तो यह हकीकत सामने आती है कि दरअसल हम छोटे- छोटे कस्बों को भी महानगरीय सांचे में ढाल कर एक विकसित राष्ट्र बनने का सपना भले ही देख रहे हों लेकिन देश को महानगरीय संस्कृति के दुष्प्रभाव से बचाने में असक्षम हैं| हालाँकि यह भी सच है जब सत्ता- सरकार ही कुछ लोगों के पाप को छिपाने के लिए करोड़ों लोगों के हक की कुंडली मारकर बैठ जाए तो ऐसे में आम आदमी की फ़िक्र किसे है? स्थिति ये है कि सहमी हुई सलवटों के नीचे तेज हो रही हैं सरगोशियाँ| ऐसे हालात में अगर पूरा परिवार ख़ुदकुशी करता है तो दोषी कौन है?
इस मार्मिक और व्यवस्था के प्रति आक्रोश से भर देने वाली घटना की तपिश को महसूस कर रहे हर सचेत नागरिक का यह कर्तव्य्य है कि वह भ्रष्ट और घुन की तरह सड चुके इस सामाजिक व्यवस्था को बदलने के लिए अपने स्तर से कदम उठायें| ताकि फिर कोई परिवार ख़ुदकुशी करने और कोई इंसान घर को काल कोठरी बनाने पर मजबूर ना हो|
गिरिजेश कुमार
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