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Sunday, June 12, 2011

संत, सियासत, सत्ता और सियासी फायदे

खो गया आम जनता से जुड़ा भ्रष्टाचार और काले धन का मुद्दा

राजनीति की परिभाषा बड़ी ही साधारण है| ये सामाजिक ढाँचा कैसे संचालित होगा उसे राजनीति कहते हैं, जिसमे समाज की बेहतरी सबसे ऊपर रहती है| इसमें राजनीतिक पार्टियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है| लेकिन राजनीतिक पार्टियां अगर राजनीति के मूल उद्देश्य को भूलकर सिर्फ़ सियासी फायदे ढूंढने की कोशिश करे, और कुर्सी से चिपके रहने के लालच में देश हित की बलि चढ़ाने से भी न हिचके तो बड़ा सवाल यही उठता है कि सामाजिक ढाँचा फिर सुव्यवस्थित ढंग से संचालित कैसे होगा? बाबा रामदेव का सत्याग्रहरूपी ड्रामा, केन्द्र सरकार का इसे कुचलने के लिए फासीवादी तरीका अपनाना और उसके बाद उपजे हालात से देश की तमाम छोटी बड़ी राजनीतिक पार्टियों और कुछ कट्टरपंथी धार्मिक संगठनों ने ऐसे ही फायदे ढूंढने की कुत्सित कोशिश की| ऐसे में भ्रष्टाचार और काले धन का मुद्दा कहीं खो गया यानी आम जनता जो यह आस लगाये बैठी थी कि शायद कुछ रास्ता निकले, उनकी उम्मीदों पर एक बार फिर पानी फिर गया| यहाँ एक और गंभीर सवाल यह उठता है कि आखिर भ्रष्टाचार के खिलाफ उठती हर आवाज़ की परिणति ऐसी ही क्यों होती है? अन्ना हजारे का आंदोलन अपने अस्तित्व की तलाश कर रहा है तो बाबा का आंदोलन अधर में लटका हुआ है|

दरअसल सवाल आन्दोलनों के बिखराव या भटकाव का भी नही है, जब आंदोलन होगा तो उसमे ये चीज़ें संभव हैं, सवाल है जिस आम जनता के लिए लड़ाई लड़ी जा रही है, एक भ्रष्टमुक्त समाज की काल्पनिक रूपरेखाएँ खींची जा रही हैं और जिस रास्ते यह लड़ाई लड़ी जा रही है उसमे आम जनता का विश्वास कितना है और क्या इससे इसके वास्तविक समाधान संभव है? केन्द्र सरकार की राजनीतिक अदूरदर्शिता का आलम ये है कि वह काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन को अ-राजनैतिक मानती है और आम जनता भावनाओं में बहकर समर्थन भी करती है तो विश्वास के साथ यह नहीं कह सकती कि अब भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा| यानि जब समस्या के समाधान का विश्वास ही नहीं है तो हल निकल कैसे सकता है?

समझना यह भी होगा कि देश के इतिहास में संतों से कभी भला नहीं हुआ| अगर धर्मग्रंथों और पौराणिक काल्पनिक कथाओं को नजरंदाज कर दिया जाए तो ऐसा उदाहरण नही मिलता| और संत अगर राजनीतिक दांवपेंच अपनाने लगे तो समाज का भला होने की कल्पना भी नहीं करनी चाहिए| और दूसरी तरफ सच यह भी है आज के संत नीति-नैतिकता, जीवन का उद्देश्य, मोक्षप्राप्ति और मनुष्य का कर्तव्य जैसे ढकोसले वक्तव्यों की आड़ में अपनी दुकान चलाते हैं और अपना व्यवसाय करते हैं वरना धार्मिक ग्रंथों की उन काल्पनिक कथाओं पर अगर विश्वास भी किया जाए तो किसी संत के पास करोड़ों या अरबों की संपत्ति नहीं बताई गई और कोई बुल्लेट प्रूफ गाड़ी या चार्टर्ड विमान में सफर करते हुए नहीं बताये गए| यहाँ धार्मिक ग्रंथों पर सवाल खड़े करने का या किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने का या प्रचलित आस्थाओं पर चोट करने का मेरा उद्देश्य कतई नहीं है लेकिन सत्य यह भी है कि गन्दी मानसिकताओं और सीमित सोच वाले इन तथाकथित संत समाज ने शुरू से समाज और देश को इतना नुकसान पहुँचाया है कि इसे छुपाया भी नहीं जा सकता|

ऑक्टोपस की तरह समाज और देश का खून पी रहे इन समस्याओं का आखिर समाधान क्या है? इसपर गंभीरता पूर्वक सोचने की ज़रूरत है| हालाँकि जनांदोलनों की बात तो सभी करते हैं लेकिन वह कैसे होगा और आखिर फिर इस व्यवस्था का तत्काल विकल्प क्या होगा इस तरफ भी ध्यान देने की ज़रूरत है|

गिरिजेश कुमार

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