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Thursday, June 16, 2011

स्वामी निगमानंद और हमारा समाज

स्वामी निगमानंद की मौत से देश को कोई फर्क नहीं पड़नेवाला| ये मौत चंद दिनों के लिए चर्चा में रहेगा फिर सब अपनी धुन में खो जाएँगे| भले ही उन्होंने गंगा की पवित्रता के लिए खुद की बलि चढ़ा दी| मानवता के इस रक्षक के मौन बलिदान ने हमें अंदर से झकझोर ज़रूर दिया, सहानुभूति दिखाते हुए हमने बहुत कुछ कह डाला, आरोप प्रत्यारोप का दौर भी शुरू हो गया लेकिन बड़ा सवाल यही है कि सामाजिक सरोकारों के लिए सच्ची लड़ाई लड़ने वाले लोगों के प्रति आखिर इस समाज का नजरिया क्या है?

इसे विडंबना कहें या संयोग कि जिस अस्पताल में और जिस दिन बाबा रामदेव नौ दिनी नौटंकी के बाद स्वस्थ होकर हाथ हिलाते हुए बाहर निकले थे उसी अस्पताल में और उसी दिन स्वामी निगमानंद की मृत्यु हुई| भावनाओं की आंधी में बहकर जो भारतीय समाज हमेशा किसी न किसी गलत फैसले पर पहुँच जाता है, चाहे वह राजनीतिक पार्टियों के निजी स्वार्थ का मुद्दा हो या बाबा रामदेव जैसे बाबाओं का सत्याग्रह, वही समाज 68 दिनों तक भूखे रहने वाले इस साधू के दिल की बात आखिर क्यों नहीं समझ सका? और वो सरकारें तथा जनता का तथाकथित हितैषी मीडिया कौन सी कुम्भकरणी नींद में सोया हुआ था जो उस मौन बलिदानी की ख़ामोशी क्या कहना चाहती है, को नहीं समझ सका? क्या आंदोलनों के पीछे पब्लिसिटी स्टंट ज़रुरी हो गया है, जैसा बाबा रामदेव के सत्याग्रह में देखा गया? सवाल यह भी है कि बाजार का अघोषित गुलाम मीडिया के लिए क्या यह आत्ममंथन का समय नहीं है? क्योंकि जिस समय देश का सारा मीडिया बाबा रामदेव को कवर कर रहा था उसी अस्पताल के दूसरे कमरे में स्वामी निगमानंद का भी ईलाज चल रहा था लेकिन किसी ने उनकी सुध नहीं ली|

स्वामी निगमानंद को हममे से कोई मौत से पहले नहीं जानता था, कम से कम मैंने तो उनका नाम भी नहीं सुना था लेकिन जिस गंगा को बचाने के लिए उन्होंने अपनी कुर्बानी दी वो उनका व्यक्तिगत मुद्दा नहीं था| और जब कोई अपनी जिंदगी को दांव पर लगाकर समाज की बेहतरी के लिए काम करता है तो इस समाज की नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है कि उसका समर्थन करे| लेकि अफ़सोस कि हमने ऐसा नहीं किया| गंगा को बचाने के सरकारी प्रयास आज से 26 साल पहले शुरू हुआ था| लेकिन 26 सालों से जारी इस जंग में थोड़ी भी सफलता नहीं मिली| सरकारी उदासीनता और लापरवाही का यह एक नायाब नमूना है| हालाँकि यह भी सच है कि गंगा को बचाने की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ सरकारी तंत्र की नहीं है, हमारी भूमिका भी ज़रुरी है लेकिन संसाधनों की कमी को कौन पूरा करेगा?

दरअसल पूंजीवादी व्यक्तित्व में पूरी तरह कैद यह समाज सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर इतना उदासीन है कि उसे निगमानंद जैसे सच्चे मानवों की कुर्बानी की परवाह ही नहीं है| हमारी सामाजिक संरचना हमें एक अदद नौकरी तलाशने को कहता है और अपने तथा परिवार की देखभाल करने को जिंदगी का उद्देश्य समझता है| ऐसे में जब समाज सेवा की बात करने वालों को बेवकूफ समझा जाये और पैसे वाले लोगों को ही तवज्जो दी जाये तो ऐसी संरचना में विकसित हुआ मनुष्य निहायत खुदगर्ज़ और स्वार्थी नहीं बनेगा तो क्या बनेगा? लेकिन इसी समाज में अतिसाधारण सा दिखने वाला मनुष्य अगर असाधारण काम करता है और दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से उसकी मृत्यु हो जाती है तो हर समाजप्रेमी, मानवताप्रेमी और देशप्रेमी लोगों को गहरा आघात पहुँचता है| हालाँकि ख़बरें ऐसी भी मिल रही हैं कि उन्हें ज़हर देकर जानबूझकर मार दिया गया और इसमें राज्य के मुख्यमंत्री पर जिस तरह से आरोप लग रहे हैं, अगर यह सच है तो इससे दुखद, शर्मनाक, बर्बर चाहे जितने भी विशेषण जोड़ दिये जाये, बात और क्या होगी?

गिरिजेश कुमार

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