पटना विश्वविद्यालय एक बार फिर सुर्ख़ियों में है| किसी शोध कार्य के लिए या तरक्की के लिए नहीं बल्कि छात्रों के उग्र प्रदर्शन और अराजकता के लिए| ताज़ा मामला स्नातक की सीटों को घटाने को लेकर है जिसके विरोध में छात्र संगठन और विश्वविद्यालय प्रशासन आमने-सामने है| सीटें घटाने को लेकर सरकार का तर्क है छात्र वोकेशनल कोर्स को तवज्जो दे रहे हैं इसलिए स्नातक की सीटें घटा दी गई| हालाँकि विश्वविद्यालय प्रशासन और छात्र संगठनों का आमने-सामने होना कोई नई बात नही है लेकिन सवाल है उच्च शिक्षा के विकास, और मानव संसाधन के सही उपयोग का जो हुनर विश्वविद्यालय और राज्य सरकार अपना रही है उसमे आम छात्र फिट होता कहाँ है? छात्रों के हितों के साथ खिलवाड़ करके विश्वविद्यालय उनकी पढ़ाई पर ही पाबंदी लगाने पर क्यों तुला हुआ है? उच्च शिक्षा को बर्बाद करके सरकार आखिर विकास की कौन सी लकीर अपने नाम खींचना चाहती है? कभी महान शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों को पैदा करनेवाला यह विश्वविद्यालय आज विवाद, अराजकता, और हताशा का केंद्रबिंदु बना हुआ है लेकिन राज्य सरकार बिहार विकास कर रहा है कि ऐसी कुम्भकर्णी नींद में सोयी हुई है कि उसे धुप, गर्मी और बरसात में एडमिशन के लिए भटकते छात्र दिखाई ही नहीं देते|
इस बार इंटर का रिजल्ट अच्छा होने और पिछले साल के कट ऑफ मार्क्स में दो से तीन फीसदी बढ़ने की संभावन से छात्रों के एडमिशन कराना वैसे भी आसान नही था सीटों की संख्या घटाने के बाद यह और भी मुश्किल हो गया है|
Patna university senate |
बिहार सरकार के मानव संसाधन विभाग के सचिव अंजनी कुमार सिंह एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर जोर देते हैं| उच्च शिक्षा को और सुदृढ़ और व्यवस्थित बनाने की बात करते हैं लेकिन दूसरी तरफ छात्रों के भविष्य से ही खिलवाड़ करते हैं| सरकार की इस दोहरी मानसिकता को समझने की क्षमता कितने लोगों में है? मनुष्य निर्माण और चरित्र निर्माण का केन्द्र विश्वविद्यालय अराजक स्थिति में पहुंचकर गुंडे, मवाली निर्माण केन्द्र में तब्दील हो जाये ऐसा कौन चाहेगा? लेकिन जो स्थितियां सरकार और विश्वविद्यालय पैदा कर रहा हैं ऐसे में अगर छात्र उग्र होकर पुरे सिस्टम को चुनौती देने पर उतारू हो जाएँ और हिंसक रूप अख्तियार कर लें तो इसकी ज़िम्मेदारी किसकी होगी?
दरअसल सच यही है कि विश्वविद्यालय आज सिर्फ डिग्री देने की दुकान है जहाँ छात्र उसकी उचित कीमत चुकाकर प्राप्त करते हैं| शिक्षा का मूल उद्देश्य तो बाजारवादी सोच में कहीं खो चुका है| फीस वृद्धि, छात्र संघ का चुनाव, एकेडेमिक कैलेंडर जारी करने, साल में 180 दिन पढ़ाई की गारंटी करने जैसे छात्रहित से जुड़े विषयों पर लंबे समय से लड़ाई चल रही है लेकिन इसपर सरकार और विश्विद्यालय ने कभी ध्यान देने की ज़रूरत नही समझी| हर साल विश्वविद्यालय की गलतियों का खामियाजा छात्रों को भुगतना पड़ता है| सवाल यह भी है कि बार बार छात्र संगठन और विश्वविद्यालय को आमने सामने आने की ज़रूरत क्यों पड़ती है? जबकि यह प्रमाणित तथ्य है कि विश्वविद्यालयों में छात्र संगठनों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है| सरकार की उदासीनता के कारण शिक्षा पहले ही बाजारू माल में तब्दील हो चुकी है रही सही कसर भी पूरी करने में कोई कोताही नहीं बरती जा रही है| बड़ा सवाल यही है कि उच्च शिक्षा में दिन-ब-दिन गिरावट और विश्वविद्यालयों की ऐसी स्थिति में सुधार के प्रयास क्यों नही किये जाते? समाज के प्रबुद्ध लोगों की चुप्पी समझ से बाहर है|
पहले घटाई गई, अब भेजा गया बढ़ाने का प्रस्ताव
पहले घटाई गई, अब भेजा गया बढ़ाने का प्रस्ताव
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