सपने देखना किसे अच्छा नहीं लगता ? सभी के पास कुछ- न- कुछ सपने होते हैं और उसे पूरा करने के लिए एक प्लान | जब कोई अपनी जिंदगी की पहली सीढ़ी पर कदम रखता है तो एक नई सुबह उसका इंतज़ार करती है | और यही वो जगह होती है जहाँ लोग लड़खड़ाते भी हैं,संभलते भी | इस जगह पर फिसलकर भी जो खड़ा हो गया सफलता उसे ही मिलती है | लेकिन जिनके सपने अधूरे रह जाते हैं उनके लिए ?
आखिर सफलता के मायने क्या हैं ? हम किसे सफल कहेंगे ? ये सवाल हममें से हर किसी के दिमाग में उठता है और काफी उलझने के बाद भी शायद हम इसका सही ज़वाब नहीं दूंध पाते | छात्र ये सोचते हैं कि ८०-९० % मार्क्स लाने वाले बच्चे ही सफल हैं, और इस भागदौड में वो खुद अपनी निजी जिंदगी से दूर चले जाते हैं ,फिर शुरू होता है अवसाद का वो काला मंजर जिसकी जंजीरों में कैद बच्चे अपने आप को कभी मुक्त नहीं कर पाते | जबकि सच्चाई इससे कहीं अलग है |
आये दिन हम इस सच्चाई से रूबरू होते हैं| तो फिर दोष किसका है ? माता –पिता ,व्यवस्था या समाज | पूरी तरह मशीनी हो चुके इस समाज में जहाँ माँ बाप बच्चों पर अच्छा करने का दबाव डालते हैं वहीँ उनकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरने वाले बच्चे अपने आप को हीन भावना से ग्रसित पाकर डिप्रेशन का शिकार हो जाते हैं |
ऐसा नहीं है कि ये बातें सिर्फ छोटे बच्चों पर लागू होती हैं, उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे छात्रों में भी ये प्रवृत्ति नज़र आती है | कई बार तो अपने किये पर हम खुद शर्मिंदगी महसूस करते हैं | तब सवाल है आखिर समाधान क्या हो ? हमारे पास दो रास्ते हैं एक तो हम चुपचाप आँख मूंदकर सबकुछ देखते रहें ,जो जिस तरह से चल रहा है चलने दें या फिर इसके खिलाफ एक ऐसी वैचारिक जागरूकता फैलाई जाये जिससे लोग खुद इस चीज़ को मानने से इंकार कर दे | वरना पता नहीं आने वाली पीढ़ी को हम किस दलदल में धकेल कर जायेंगे ?
मै क्या कहू जनाब...जो कहना है बोल दूंगा......
ReplyDeleteसीधे सीधे कहू...आप शशि शेखर जी से प्रेरित है...
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