इंसान को सबसे ज्यादा अपनी ज़िंदगी से प्यार होता है| लेकिन उसी ज़िंदगी को दाँव पर लगाने का फैसला जब कोई करता है तो निश्चित ही उसके पीछे हताशा, निराशा, और अवसाद का वो काला मंजर होता है जिसकी शायद हम कल्पना भी नहीं कर सकते| १५ सितम्बर को पटना में नगर निगम कर्मचारी दयानंद के आत्मदाह का फैसला भी इसी भयावहता को उजागर करता है| जिसमे वह ५० फीसदी जल गया था और अभी अस्पताल में मौत से जंग लड़ रहा है| लेकिन क्या सरकार इस सवाल का ज़वाब देगी कि कर्मचारियों को वेतन क्यों नहीं दिया गया था? क्या कभी बड़े अधिकारियों का वेतन बांकी रखा जाता है? क्या नियम और कानूनों का पेंच सिर्फ़ निचले स्तर के कर्मचारियों के लिए होता है?
जब भी कोई मानवता को झकझोर देने वाली घटना घटती है तो इंसान का रूह काँप उठता है| और इंसानियत उससे एक ही सवाल पूछती है आखिर ऐसा कब तक? कल हुई ये घटना कुछ दिनों के लिए लोगों के दिमाग में रहेगी लेकिन फिर सबकुछ वैसे ही चलता रहेगा| कोई भी इसके तह तक जाने की कोशिश नहीं करेगा| हमें अफ़सोस तब होता है जब सरकारी उदासीनता का खामियाजा गरीब और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को भुगतना पड़ता है| किस लोकतंत्र की दुहाई देते हैं हम जहाँ खून पसीने की कमाई हासिल करने के लिए भी खून जलाना पड़ता है?
क्या एक लोकतांत्रिक देश में लोकतांत्रिक पद्धत्ति से चुनी हुई सरकार और उसके तंत्र के इस तरह के गैरज़िम्मेदाराना हरकत को बर्दाश्त किया जा सकता है, जिसमे कर्मचारियों को वेतन न दिया जाये? कदापि नहीं| इसकी नैतिक ज़िम्मेदारी सरकार को लेनी होगी| ताकि फिर कोई दयानंद अपनी ज़िंदगी दाँव पर लगाने के लिए बाध्य न हो|
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