बिहार में लोकतंत्र के महापर्व के पहले दिन लगभग ५५ प्रतिशत मतदान हुए| यानि हर १०० में ४५ लोगों ने वोट नहीं दिया| बिहार में बदलाव और विकास की लहर चल रही है, ये बातें तो सभी कर रहे हैं लेकिन इन सबसे अलग यह सवाल भी उठता है कि आखिर मतदाताओं का इतना बड़ा तबका मताधिकार के प्रयोग से अपने आप को वंचित क्यों रखता है? हम मतदान के इस आंकड़े से खुश ज़रुर हो सकते हैं लेकिन शायद इसकी तरफ कोई देखना नहीं चाहता| वोटिंग का प्रतिशत ५० के आसपास रहना कहीं न कहीं लोकतंत्र पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है|
चुनाव आयोग के निष्पक्ष और भयमुक्त चुनाव कराने के तमाम प्रयासों के बावजूद भी मतदान का प्रतिशत क्यों नहीं बढ़ रहा है? यह एक गंभीर मुद्दा है| अगर हम पिछले दिनों हुए लोकसभा चुनाव से लेकर देश के अन्य भागों में हुए विधानसभा चुनावों के इतिहास पर नज़र डालें तो कहीं भी मतदान का प्रतिशत ५० – ६० के ऊपर नहीं गया| आश्चर्य कि बात यह है कि इनमे उनलोगों कि संख्या भी शामिल है जो शिक्षित हैं| हालाँकि इस सच्चाई से भी हम इंकार नहीं कर सकते कि देश व राज्य का बड़ा तबका चुनाव जैसी चीजों से अनभिज्ञ रहता है| और जो असल में वोट के हक़दार है|
व्यवस्था के प्रति ये नाराज़गी आखिर किन कारणों से है? लोकतंत्र के नाम पर भ्रष्टतंत्र और राजनीति के नाम पर निजी स्वार्थ को तरजीह कहीं न कहीं आम लोगों के अंदर नफरत पैदा करता है जो इन्हें मताधिकार से खुद को अलग करने के लिए बाध्य करता है| इसके लिए राजनीतिक इक्श्शक्ति भी जिम्मेदार है| सुरक्षा और शांतिपूर्ण मतदान के नाम पर करोरों रूपये खर्च कर दिए जाते हैं लेकिन राजनीतिक जागरूकता फैलाने के लिए क्या किये जाते हैं? आम लोग जबतक अपने वोट कि ताकत से महरूम हैं तबतक लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता| कुछ तथाकथित भ्रष्ट लोगों ने राजनीति को भी व्यापार बना कर अपने हित साधने के लिए इस्तेमाल करते हैं| जो कतई जायज़ नहीं है| और आम जनता इस व्यवस्था की नाकामी मानकर खुद को मतदान से ही अलग कर लेता है| इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि लोगों को उनके वोट कि अहमियत समझाई जाये| और हम अपने आप को सफल तभी मानेंगे जिस दिन हर एक व्यक्ति मतदान करने जायेगा|
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