किसी भी देश की पहचान इस
बात से होती है कि वह अपने नायकों को किस तरह से याद करता है। भारत ही नहीं
बल्कि विश्व इतिहास में देश के लिए त्याग और बलिदान के प्रतीक शहीद-ए-आजम भगत सिंह
किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं। अंग्रेजों के साम्राज्य
विस्तार की नीतियों और पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ भगत सिंह एक मजबूत चट्टान के
रूप में खड़े हुए थे। भारतीय इतिहास में 23 मार्च 1931 का
दिन बड़े ही श्रद्धा और आदर के साथ याद किया जाता है। यही वह दिन था जब दुनिया ने
देखा कि हिन्दुस्तानी देश के लिए किस तरह से अपना सबकुछ कुर्बान कर देते हैं।
लेकिन क्या इस कुर्बानी को हम सहेज कर रख पाए हैं? हर साल शहीदी दिवस के दिन फूल
मालाएँ चढाकर औपचारिकताएं पूरी करते वक्त यही वो सवाल है जो हमें सोचने को मजबूर
करता है। इससे भी बड़ा सवाल ये है कि आखिर शहीदों की शहादत अपने ही देश में वन्दनीय
क्यों है?
28 सितम्बर 1907 को पंजाब
के लायलपुर में जन्मे भगत सिंह का पूरा परिवार ही आजादी
आंदोलन के संघर्षों में सक्रिय था। भगत सिंह के अंदर देशभक्ति की भावना इसी पारिवारिक माहौल
का ही नतीजा थी। लेकिन अफ़सोस कि जिस व्यक्ति के नाम लेते ही हजारों लोगों की
आँखें नाम हो जाती हैं, उनके क्रान्तिकारी विचारों से प्रभावित होकर
लाखों लोग सड़कों पर अन्याय और अत्याचार के खिलाफ उतर आते हैं उन्हें भुलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई
है। आज जिन विचारों की देश को सबसे ज्यादा
ज़रूरत थी उन्ही विचारों को जड़ से मिटाने की कोशिशें हो रही हैं। वर्तमान में जबकि
देश में आर्थिक असमानता दिन ब दिन बढती जा रही है, घोटाले, भ्रष्टाचार और लूट में पूरा देश लिप्त है, आपसी भेदभाव पूरे समाज को पीछे धकेल रहा है, आम लोग चाहकर भी विरोध में आवाजें नहीं उठा
पाते, लोग असंगठित होकर लड़ तो रहे हैं लेकिन उनकी आवाज़ कहीं दब कर रह जाती है ऐसी
विपरीत परिस्थितियों में
भगत सिंह और उनके साथियों की क्रान्तिकारी विचारधारा एक नई ऊर्जा प्रदान
करती है। अन्याय और अत्याचार के खिलाफ मजबूत
विचारों से लैस होकर जहाँ ज़रूरत थी एक संगठित संघर्ष की वहीँ समाज में लोग हताशा
और निराशा की ज़िन्दगी जी रहे हैं। अवसाद से ग्रसित होकर लोग आत्महत्या जैसे
आत्मघाती कदम भी उठा रहे हैं, जिसका खामियाजा पूरा समाज भुगत रहा है। भगत सिंह के
बहाने सामाजिक व्यवस्था पर सवाल इसलिए क्योंकि जिन मुश्किल परिस्थितियों में भगत
सिंह और उनके साथियों ने अपनी जीवटता प्रदर्शित की वह हालात से टूटते हुए इंसानों को रास्ता दिखाने के लिए काफी था। लेकिन उनके
वीरता की चर्चा सिलेबसों में तो नहीं ही
दिखती, उलटे उनके विचारों को फैलने से रोकने के लिए तमाम षड्यंत्र रचे जाते हैं। देश
के महापुरुषों की इस वन्दनीय स्थिति से हमें शर्मिंदगी महसूस होती है। भगत सिंह जिस साम्राज्यवादी व्यवस्था के खिलाफ
लड़ते रहे आज हमारी
व्यवस्था उसी साम्राज्यवाद की पिछलग्गू बन गयी है।
भगत सिंह के विचारधारा
रूपी सच को छुपाने की कोशिश की जा रही है। आज आज़ादी के इतने सालों बाद भी
उनके विचारोंं की प्रासंगिकता कायम है। समाज और देश के विकास की गहरी समझ और
कार्ययोजना उनके अंदर विकसित थी। लेकिन उनकी जीवनी दुर्लभ दस्तावेज़ का रूप ले चुकी है जिसका जिम्मेदार शासन तंत्र है। कहीं न कहीं शासकों को इस बात का भय है कि अगर भगत सिंह की विचारधारा से प्रभावित होकर लोग जागरूक होकर इस भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ एकत्रित हो गए तो फिर उस क्रांति को रोकना किसी भी सरकार के लिए संभव नही होगा। हालाँकि भगत सिंह को याद करने की सार्थकता तभी है जब हम उनके विचारों को अमल में लायें और भारत को एक समाजवादी गणतंत्र बनाने की पहल करें। क्या अपनों तक सीमित समाज देश रत्न के प्रति अपने रवैये को बदलेगा?
कार्ययोजना उनके अंदर विकसित थी। लेकिन उनकी जीवनी दुर्लभ दस्तावेज़ का रूप ले चुकी है जिसका जिम्मेदार शासन तंत्र है। कहीं न कहीं शासकों को इस बात का भय है कि अगर भगत सिंह की विचारधारा से प्रभावित होकर लोग जागरूक होकर इस भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ एकत्रित हो गए तो फिर उस क्रांति को रोकना किसी भी सरकार के लिए संभव नही होगा। हालाँकि भगत सिंह को याद करने की सार्थकता तभी है जब हम उनके विचारों को अमल में लायें और भारत को एक समाजवादी गणतंत्र बनाने की पहल करें। क्या अपनों तक सीमित समाज देश रत्न के प्रति अपने रवैये को बदलेगा?
गिरिजेश कुमार
behtareen prastuti ...
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