पिछले दिनों मैं छठ पर्व के अवसर पर बिहार के मोतिहारी जिले के अरेराज प्रखंड में था| इसी प्रखंड में एक गांव है टिकुलिया| यह गोविन्दगंज विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत है| यहाँ से अभी जद यु की श्रीमती मीना दिवेदी विधायक हैं और वर्तमान में उम्मीदवार भी हैं| इसी टिकुलिया गाँव में मैंन ठहरा था| यहाँ जाने पर मुझे पहली बार ऐसा लगा कि इस वर्तमान परिवेश में जहाँ राजनेता अपने स्वार्थ को ही तरजीह देते हैं वहाँ वास्तव में जननेता भी हुए हैं जिनके अंदर लोगों के लिए, खास कर गरीब और पिछड़े हुए लोगों के लिए एक दर्द था| लोगों के दुःख से अपने अंदर पीड़ा महसूस होती थी| और उनकी समस्याओं के समाधान के लिए हरसंभव प्रयास करना जिनका पेशा था| वो प्रयास चाहे बाहुबल से हो या समझा कर| वो 90 के दशक का काल था जब इस क्षेत्र में किसी का राज़ चलता था| उनका नाम था श्री देवेंद्रनाथ दुबे| श्री देवेंद्रनाथ दुबे टिकुलिया के ही रहने वाले थे| कहने को तो ये दबंग थे लेकिन इन्हें लोग दबंग के नाम से कम मसीहा के नाम से ज्यादा जानते है| 1995 ई. में ये विधायक चुने गए| इनके द्वारा किये गए कामों को लोग आज भी नहीं भूल पाए हैं| यह शायद इस क्षेत्र के लोगों का दुर्भाग्य था और इस प्रदेश की बदहाल व्यवस्था का परिणाम जिसने इस व्यक्तित्व को असमय ही काल के गाल में जाने को मजबूर कर दिया| १९९८ में जब यह ये सांसद का चुनाव लड़ रहे थे तो बेरहमी से पुलिस के वेश में अपराधियों ने इनकी हत्या कर दी| कहते हैं इनकी हत्या की खबर जैसे ही आसपास के इलाकों में पहुंची वैसे ही जो, जहाँ, जिस भी हालात में था घटनास्थल की ओर दौड पड़ा| यहाँ के लोग आज भी उस दृश्य को भूल नहीं पाए जब गाँव के आसपास लगी हजारों एकड़ की फसल सिर्फ इसलिए बर्बाद हो गयी कि सड़क पर चलने की जगह नहीं थी| कौन कहाँ चल रहा है इस बात का किसी को ध्यान नहीं था| आँखों में आंसू थे,ह्रदय क्षुब्ध था और चेहरे पर आक्रोश| इस आक्रोश को आज इस घटना के इतने दिनों के बाद भी महसूस किया जा सकता है| इस हत्या में तात्कालीन सरकार के मुखिया का नाम लेने से लोग ज़रा भी नहीं हिचकते| यह पुछने पर कि बिना सुरक्षा के वो कैसे निकल गए जब उनपर हमले की आशंका थी? “व्यवस्था नाम की कोई चीज़ नहीं थी भैया” गांव के लोगों के मुह से एक सुर से यह वाक्य निकलता है और बोलते-बोलते आँखें भींग जाती हैं| चाहे महिलाएं हो, बूढ़े हो या अधेड सभी की आँखें इनके नाम से ही डबडबा जाती है| वह एक व्यक्ति आज भी उस क्षेत्र की राजनीति को प्रभावित करता है इस बात को सभी स्वीकार करते हैं| इनकी ही भाभी वर्तमान में इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रही हैं|
उनकी एक मूर्ति भी प्रखंड कार्यालय के सामने लगी हुई है| इंसान के इस तीसरे चेहरे से मेरी मुलाकात पहली बार हुई थी| आखिर यह चेहरा कैसे उत्पन्न होता है?
इस समाज में दो तरह के इंसान रहते हैं एक जो पुरे समाज के लिए पूजनीय होता है और दूसरा जिसकी निंदा समाज का हर एक व्यक्ति करता है| लेकिन इन दोनों चेहरों के अलावा एक चेहरा होता है जिसकी तरफ शायद हम सोच भी नही पाते| इसमें मनुष्य समाज में दबे कुचले लोगों के लिए देवता के समान होता है जबकि वही मनुष्य किसी के लिए राक्षस से भी ज्यादा खूंखार होता है| व्यक्ति का यह चेहरा समाज के लिए अच्छा है या बुरा ये विवाद का विषय हो सकता है लेकिन अगर हम इसके पीछे के कारणों की तलाश करें तो यह पता चलता है कि व्यवस्था के प्रति आक्रोश और अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए लोग ऐसा कदम उठाने को मजबूर होते हैं| भारत जैसे देश में जहाँ दबे कुचलों और गरीबों की संख्या ज्यादा है,ऐसा करना सही भी लगता है| क्योंकि जब सामाजिक व्यवस्था समाज को पीछे धकेलने की कोशिश करती हैं तो शायद ऐसे लोगों की ज़रूरत भी समाज को पड़ती है| इस दिखावे के लोकतंत्र में कहने को तो जनता मालिक है लेकिन असली चाबी पूंजीपतियों के हाथ है जो आम गरीब लोगों का शोषण करते हैं| इसके खिलाफ आम लोगों में गुस्सा तो रहता है लेकिन उसकी इतनी हिम्मत नहीं होती कि आवाज़ उठा सकें| इन्ही विपरीत परिस्थितियों में ऐसे नेतृत्वकरी लोग उभरते हैं जिनके अंदर अमीर और अमीरी के खिलाफ आग जलती रहती है और फिर वह उसे अपने हिसाब से इस सामाजिक कुरीति को खत्म करना चाहता है| यह अलग सवाल है कि सफलता कितनी मिलती है लेकिन निष्कर्ष के तौर पर यह तो कहा ही जा सकता है कि कुछ दिन के लिए ही सही लेकिन ऐसे लोगों की ज़रूरत इस समाज को है|
main bhi aapke saath hun //
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