पर्यावरण पर मंडरा रहे संभावित खतरे के बावजूद, जो मानव के अस्तित्व को ही लील जाने को आतुर है, सरकार के द्वारा ऐसे उद्योगों को बढ़ावा देना जो किसी एक नहीं जबकि पुरे समाज को नष्ट कर सकता है कहाँ तक उचित है? बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के मड़वन प्रखंड के चैनपुर-विशनपुर गांव में एक निजी कंपनी द्वारा खोले जा रहे एस्बसटस के कारखाने से जहाँ एक तरफ पर्यावरण को काफी नुकसान पहुँचने की संभावना है वहीँ दूसरी तरफ इसके लिए गरीब किसानों की खेतीयोग्य भूमि को बंजर बताकर जबरन कब्ज़ा कर लिया गया है, जो किसी भी लोकतान्त्रिक प्रदेश में जनता के हितों के साथ अन्याय है| उस ज़मीन के टुकड़े को वापस लाने के लिए जब किसानों ने विरोध प्रदर्शन किया तो प्रशासन ने जुल्म की इम्तहाँ ही पार कर दी| उन बेबस, लाचार और निहत्थे किसानों पर लाठियां और गोलियाँ चलायी गयी जिसमे कई किसान घायल हुए| उसके बाद भी विरोध में आवाजें बंद नहीं हुई आज भी किसान सतत लड़ाई लड़ रहे हैं|
सवाल उठता है जब उद्योग आम आदमी की जिंदगी ही नर्क बना दे तो ऐसे उद्योग क्या सिर्फ मुनाफा अर्जित करने के लिए खोले जा रहे हैं? जब इसे खोलने का प्रस्ताव पारित किया गया तो पर्यावरणीय कानून का ध्यान क्यों नहीं रखा गया? विदित हो कि केन्द्र सरकार ने १९८६ में पर्यावरण की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए पर्यावरण सुरक्षा कानून १९८६ बनाया था| आम किसानों के साथ अन्याय का इससे बड़ा उदहारण क्या होगा कि वो ज़मीन अग्रोइंडस्ट्री के नाम पर लिया गया और बाद में उसपर एस्बस्तास का कारखाना खोला जो रहा है|
एस्बस्तास के कारण कैंसर के अलावा पेट,आंत का ट्यूमर, गला, गुर्दा से सम्बंधित अनेक घातक बीमारियाँ होती हैं| ताज़ा आंकड़ों पर अगर गौर किया जाये तो दुनिया में १०७००० लोग प्रतिवर्ष इससे मरते हैं| दुनिया के ५० से अधिक देशों ने इसपर प्रतिबन्ध लगे है और बांकी देशों में भी आवाजें उठ रही हैं|
हम उद्योग के विरोधी नहीं हैं| लेकिन दुनिया के विकसित देशों में प्रतिबंधित एस्बस्तास का कारखाना लगाना पूरी तरह अनुचित है| फिर खेतीयोग्य ज़मीन पर कारखाना क्यों बने? क्या हमारे यहाँ बंजर ज़मीन का अभाव है? बंद कारखानों को अधिगृहित कर सरकार वहाँ कारखाना क्यों नहीं बनाती है? और फिर ५०० से १००० मीटर के दायरे में हजारों की आबादी, दर्ज़न भर प्राथमिक व मध्य विद्यालय, स्वास्थ्य उपकेन्द्र के बीच इस तरह की खतरनाक बीमारी फ़ैलाने वाले कारखाने का कोई औचित्य नहीं है|
अगर हम भूले न हों तो सिंगुर और नंदीग्राम में वहाँ की तथाकथित कम्युनिस्ट सरकार ने उपजाऊ ज़मीन पर ही उद्योग लगाने की अनुमति दी थी और वहाँ के किसानों ने “जान देंगे ज़मीन नहीं देंगे” की तर्ज़ पर लड़ाई लड़ी थी और क़ुरबानी दी थी परिणामस्वरुप सरकार को झुकना पड़ा था| इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि आनेवाले दिनों में बिहार सरकार को ऐसी ही चुनौतियों का सामना करना पड़े| इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि समय रहते जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए, एक प्रजातान्त्रिक सरकार अपने कर्तव्य को पूरा करे और तत्काल इस मामले हस्तक्षेप करे ताकि अधिकार की इस लड़ाई में बेवजह किसी की माँगें सुनी न हो और कोई महिला अपनी आबरू न खोये|
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