क्या हमारा कानून अभी भी इतना परिपक्व नहीं हो पाया है कि वो दोषियों को सजा दे सके? क्या हमारी शासन व्यवस्था इतनी निकम्मी है कि वो एक निर्दोष लड़की के हत्यारों तक नहीं पहुँच सकती? क्या पैसा और पॉवर लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए बनाये नियमों से भी बढ़कर है? क्या एक निर्दोष परिवार के लिए आंसू और गम के समुन्दर में रहने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है? ये वो सवाल हैं जो आरुषि की हत्या होने पर भी उठे थे और आज जब उसके केस की फाइल बंद की जा चुकी है तब भी उठ रहे हैं| इन ढाई सालों में अगर कुछ हुआ तो सिर्फ इतना कि तलवार दम्पति की ज़िल्लत और बदनामी| इन जीवंत सवालों के जवाब न तो सरकार के पास है न ही सी बी आई के पास| एक और सवाल क्या देश की सबसे बड़ी एजेंसी निकम्मी हो चुकी है? क्योंकि उसके हत्यारे आज भी जिंदा हैं|
आरुषि हत्याकांड की फाइल बंद होना न सिर्फ सी बी आई की नाकामी है बल्कि सरकार की भी नाकामी है| रिहायशी इलाके में एक लड़की और उसके नौकर की हत्या होती है, ढाई साल तक ड्रामा चलता है और अचानक केस बंद करने की अर्जी दी जाती है| इस सनसनीखेज हत्याकांड को अचानक सबूतों का अभाव कहकर बंद कैसे किया जा सकता है? पुरे देश की निगाहें आज भी उन हत्यारों को ढूंढ रहीं हैं जिसने एक मासूम कलि को फूल बनने से पहले ही तोड़ दिया| लेकिन शायद अब वो कभी नहीं पकडे जायेंगे|
कातिलों को पकड़ने के लिए आज सी बी आई सबूत न होने की बात कह रही है लेकिन क्या सी बी आई इस सवाल का ज़वाब देगी कि जब सबूत ही नहीं थे तो फिर किस आधार पर आरुषि के पिता को गिरफ्तार किया गया था? क्या सी बी आई देश और समाज के सामने यह कहने की हिम्मत रखती है कि उसने इस केस को कभी गंभीरता से नहीं लिया| जांच के नाम पर सिर्फ खानापूरी की गई| एक स्वतंत्र संस्था जिसपर पुरे देश को विश्वास था वो आज सवलों के घेरे में आ गई है| असल में आरुषि हत्याकांड से जहाँ पूरा देश स्तब्ध था वहीँ पुलिस और सरकार ने हमेशा इसे नज़रंदाज़ किया| केस जब सी बी आई को सौंपा गया तो सी बी आई ने उलटे उसके पिता को ही दोषी करार दे दिया| चाहे कुछ भी हो इस सच को तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि सरकार, पुलिस और सी बी आई ने मिलकर एक मासूम और निर्दोष लड़की को इन्साफ से वंचित कर दिया| उसपर सी बी आई की बेशर्मी ये कि उसने दोष यू पी पुलिस पर डाल दिया|
पूंजीवादी सामाजिक व्यवस्था का एक और घिनौना चेहरा पुरे समाज के सामने स्पष्ट हो गया| हम अपने देश पर गर्व करें तो आखिर कैसे जहाँ मंत्री से लेकर संतरी तक पैसों से ख़रीदे जा सकते हैं| न्यायालय हो या सरकार यहाँ सब कुछ बिकाऊ है ऐसे ये कल्पना भी बेईमानी लगती है कि एक मध्यमवर्गीय परिवार, जिसकी जिंदगी दो वक्त की रोटी कमाने में ही बीत जाती है, उसे न्याय मिलेगा| इस कांड में शुरुआत से ही जो रेवैया अपनाया गया था उससे न्याय मिलने की उम्मीद तो खैर कभी नहीं थी लेकिन इसका अंत इतना दुखद होगा इसकी भी कल्पना शायद हमें नहीं थी| बहरहाल घुन की तरह सड़ चुके इस व्यवस्था की नाकामी तो बार-बार उजागर हो चुकी है लेकिन अब वक्त कुछ ठोस फैसले लेने का है वरना पता नहीं आरुषि जैसी कितनी लडकियां इसकी शिकार होंगी और हम क्रोध,दुःख और गुस्से को पी-पी कर घुटते रहेंगे?
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