पूर्णिया के विधायक राजकिशोर केसरी की हत्या से इस कंपकपा देने वाली ठण्ड में भी बिहार के राजनीतिक गलियारों का पारा गर्म हो गया है| बिहार की राजनीति हमेशा ही विवादों में रही है| लेकिन वर्तमान व्यवस्था में राजनीति अपने राजनीतिक उसूलों को भूलकर किस तरह से स्वार्थ सिद्धि का पर्याय बन चुकी है इस हत्या के बाद माननीय उपमुख्यमंत्री श्री सुशील कुमार मोदी के बयानों से स्पष्ट हो जाता है| किसी भी सभ्य समाज में हत्या जैसे जघन्य अपराध को स्वीकार नही किया जा सकता| और लोकतान्त्रिक व्यवस्था में तो हिंसा का कोई स्थान ही नहीं है| हम इसकी घोर निंदा करते हैं| लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलु भी ये है कि मारनेवाला कोई पेशेवर कातिल नहीं है| और न ही मानसिक रूप से विक्षिप्त है| वो एक ऐसा व्यक्ति है जिसके ऊपर समाज को शिक्षित करने की ज़िम्मेदारी थी| तो फिर एक शिक्षक जिसकी भूमिका समाज को दिशा देने की है, देश के भविष्य को सँवारने की है, उसने ऐसा कदम क्यों उठा लिया? ये जांच का विषय है| कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी| लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि इसके पीछे हताशा, निराशा, और क्रोध का वो काला मंजर था जिसकी कल्पना भी शायद हम नहीं कर सकते| इस घटना के सिक्के का दूसरा पहलु शायद ज्यादा सच और आईने की तरह साफ़ है|
आरोपों के जिन घेरों में दिवंगत विधायक हैं वो न सिर्फ एक जनप्रतिनिधि की मर्यादा का उल्लंघन है बल्कि एक जागरूक समाज में जनभावनाओं के साथ खिलवाड़ है| हमारी संवेदनाएं बेशक दिवंगत विधायक के परिवार साथ हैं| हम उनके साथ सहानुभूति रखते हैं| लेकिन उनकी छवि दागदार थी इससे इनकार नहीं किया जा सकता|
लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जनप्रतिनिधि का पद बहुत बड़ा होता है और समाज के विकास की प्राथमिक ज़िम्मेदारी भी उनके ही ऊपर होती है| एक जनप्रतिनिधि होने के नाते उनका भी कर्तव्य होता है कि वो जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ न करें| लेकिन क्या दिवंगत विधायक ने अपना कर्तव्य याद रखा? सच को चाहकर भी छुपाया नहीं जा सकता|
न्याय में देरी अन्याय है| और यही वो चीज़ है जो किसी आम आदमी को अपराध करने पर मजबूर करता है| विधायक हत्याकांड के पीछे कहीं न कहीं यही अपराधबोध, और शोषित होने की मनःस्थिति नज़र आती है|
कानून व्यवस्था में सुधार और अपराधीमुक्त समाज समाज के बनाने के जिस वादे के साथ सरकारें सत्ता में आती हैं अगर उस सरकार के ज्यादातर सहयोगी ही आरोपों से घिरे हों तो शायद पूरा सिस्टम ही सवालों के दायरे में आ जाता है| बिहार में ही २४३ विधायकों में १४२ विधायकों पर कोई न कोई मुकदमा दायर है| बहरहाल ये घटना हमारे समाज को तो झकझोरती ही है साथ ही साथ यह सरकार और उसके दावों की नाकामी की ओर भी संकेत करती है जिसपर बिहार की जनता ने भरोसा किया था| हम यह नहीं कहते कि भरोसा टूट गया लेकिन इतना ज़रूर है ऐसी घटनाएँ यह सोचने पर भी मजबूर करती है लोगों के अंदर व्यवस्था की खामियों के प्रति कितना गुस्सा है| साथ यह एक चेतावनी भी है कि अगर समय रहते इसे गंभीरता से नहीं लिया गया ऐसे ही भयानक परिणाम सामने आ सकते है फिर शायद हम अफ़सोस व्यक्त करने के अलावा कुछ भी नहीं कर पाएंगे|
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