शिक्षा से ही मनुष्य महान बनता है| एक शिक्षित मनुष्य पुरे समाज को शिक्षित कर सकता है और उसे विकास के रास्ते पर अग्रसर कर सकता है| लेकिन पिछले कुछ वर्षों में शिक्षा को भी बाजारू माल में तब्दील कर दिया गया है जो बहुत ही दुखद है| इसकी जद में सबसे ज्यादा उच्च शिक्षा है, इसलिए वर्तमान में उच्च शिक्षा का स्तर लगातार गिर रहा है| अब इसका उद्देश्य चरित्रनिर्माण या मनुष्य निर्माण न रहकर मुनाफा अर्जन करना रह गया है जो वर्तमान ही नहीं आनेवाली पीढ़ियों के लिए भी घातक है| समय रहते अगर इसपर गंभीरता पूर्वक विचार नहीं किया गया तो आने वाले दिनों में बुरे परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं|
दरअसल हमें यह सोचना ज्यादा ज़रुरी है कि उच्च शिक्षा में गिरावट की इस वर्तमान स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है और क्यों उच्च शिक्षा से गुणवत्ता गायब है? भूमंडलीकरण और बाजारीकरण का प्रभाव सबसे ज्यादा उच्च शिक्षा पर पड़ा है| कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे शिक्षण संस्थानों से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा कहीं गायब है और सिर्फ़ व्यापार हावी है| यहां सवाल शिक्षा व्यवस्था पर भी उठना लाजिमी है| हम आज भी १९३५ में बनाये गए लॉर्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति का अनुशरण कर रहे हैं जिसका उद्देश्य सिर्फ़ क्लर्क तैयार करना था| जिसकी परिणति आज यह है कि शिक्षण संस्थानों पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है और इसका नाजायज़ फायदा उठाकर संस्थान के मालिक छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ करते हैं और मोटी रकम भी वसूल करते हैं| अब सवाल सिर्फ़ सोचने का नहीं कुछ करने का है| एक ठोस कार्य योजना और मजबूत नीति की ज़रूरत है जो इस समस्या को जड़ से उखाड़ सके|
उदारीकरण का सीधा असर भी शिक्षा पर ही पड़ा है| देश् और विदेश के पूंजीपतियों ने भारत में शिक्षा के रूप में बाजार को देखा और उन्होंने इसमें पूंजीनिवेश करना सुरक्षित समझा| देश में बड़े पैमाने पर खुल रहे निजी उच्च शिक्षण संस्थान इसके उदाहरण हैं, जो दूर दराज़ के भोले-भाले छात्रों को ऊँचे सपने दिखाकर अपनी ओर आकर्षित करते हैं और बदले में उन्हें कुछ नही मिलता| साथ ही सरकारी विश्वविद्यालयों को भी निजी हाथों में सौंपने और उसे ऑटोनोमस बनाने का कुत्सित प्रयास जारी है| उच्च शिक्षा में गिरावट का ये प्रमुख कारण है| आज उच्च शिक्षा आम लोगों की पहुँच से दूर होती जा रही है| गांव में रहने वाले गरीब किसानों के बेटे, मजदूरों के बेटों के सपने, पंख लगने से पहले ही टूट जाते हैं क्योंकि बड़े शिक्षण संस्थानों की मोटी फीस भरने में वो असमर्थ हैं| सवाल यह उठता है कि क्या उच्च शिक्षा पाने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है? क्या इंजीनियर और डॉक्टर की पदवी सिर्फ़ पैसे वालों के लिए है? दरअसल इस देश में कीमत, गरीबों को ही चुकानी पड़ती है| इस तथाकथित लोकतान्त्रिक व्यवस्था में कहने को तो जनता का राज चलता है लेकिन असलियत में इसकी चाबी उन चंद मुट्ठीभर पूंजीपतियों के हाथ में रहती है जो इस देश और संसाधनों को अपनी जागीर समझते हैं| इसलिए शिक्षा जैसी चीज़ भी व्यापार बन गया है|
हमें आश्चर्य तब होता है जब देश के शिक्षाविद, बुद्धिजीवी और समाज में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले लोग इस गंभीर मसलों पर चुप रहते हैं| क्या इस देश में नैतिकता नाम की कोई चीज़ नहीं बची है? समाज में इस गिरावट को देखकर भी वे चुप कैसे हैं? इस चुप्पी को तोडना ही होगा|
गिरिजेश कुमार
मो 09631829853
आप सही कहते हैं। शिक्षा का अधिकार व्यर्थ है यदि सभी को समान शिक्षा का अवसर प्राप्त नहीं होता है। शिक्षा के व्यवसायीकरण ने समाज में जबर्दस्त असमानता पैदा की है।
ReplyDeleteशिक्षा हर एक कों उपलब्ध हो इसके लिए सरकारी स्कूलों कि व्यवस्था कों मज़बूत करना होगा । तथा शिक्षा का स्तर ऊंचा करना होगा । इस प्रक्रिया में स्कूल के शिक्षक एक बेहतर भूमिका निभा सकते हैं । जागरूक करते इस आलेख के लिए आपका आभार ।
ReplyDeleteसुंदर लेख
ReplyDeleteदेश के संतुलित और समग्र विकास के लिए सिर्फ समान अधिकार ही नहीं शिक्षा पाने का समान अवसर भी ज़रूरी है.....सार्थक पोस्ट
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