पत्रकारिता: मिशन,प्रोफेशन और अब कॉमर्स
पत्रकार और पत्रकारिता की बात जब कभी भी की जाती है तो उसका सीधा मतलब इमानदारी, सच और निष्पक्ष विचार जैसे शब्दों से होता है| लोकतान्त्रिक व्यवस्था में पत्रकार एक पूल की तरह होता है जो आम लोग और सरकार के बीच अटूट बंधन से जुड़ा रहता है| आजादी आंदोलन में पत्रकारिता की भूमिका को कोई नज़रंदाज़ नहीं कर सकता| लेकिन पीछे कुछ सालों से संघर्षशील पत्रकार हाशिए पर दिखाई दे रहे हैं और पत्रकारिता चाटुकारिता का पर्याय बन गयी है| सवाल, उसकी निष्पक्षता पर भी उठाये जा रहे हैं| पत्रकारिता में हुए इस अप्रत्याशित बदलाव के कारण क्षति, कहीं ना कहीं उस समाज को पहुच रही है जिसकी बेहतरी के लिए इसकी शुरुआत हुई थी| एक बड़ा सवाल यह उठता है कि आखिर वो कौन से कारण हैं जिसने इसे अपने मूल उद्देश्य से भटका दिया? इसपर चर्चा करना ज़रुरी है|
इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि बालगंगाधर तिलक और महात्मा गांधी जैसे स्वतंत्रता संग्राम के नायकों ने पत्रकारिता को ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध एक अचूक हथियार की तरह इस्तेमाल किया था और लोगों में जागरूकता फैलाई थी| लेकिन आज पत्रकारिता अपनी आत्मा और आवाज़ दोनों खो चुकी है| अपनी आत्मा ना बेचने वाले चंद मुट्ठीभर लोग ही बचे रह गए हैं| दरअसल वर्तमान में पत्रकारिता का मतलब सरकार, पूंजीपति और मालिकों की जी हुजूरी करना रह गया है| पत्रकारिता की यह विकट और विपरीत स्थति पुरे समाज को विनाश के गहरे अन्धकार में धकेल सकता है| सरकार और मालिक की चापलूसी और जी हुजूरी की होड में अखबार और टी वी चैनल इतने आगे निकल गए हैं कि वो अपने सिद्धांत और आदर्श की बलि चढाने से भी पीछे नहीं हट रहे हैं| कभी पत्रकारिता मिशन थी फिर प्रोफेशन हुई और आज यह कॉमर्स में तब्दील हो चुकी है जो समाज के लिए बेहद ही खतरनाक है|
शुरुआत में पत्रकार समाज का एक सजग प्रहरी हुआ करते थे वे सिर्फ़ प्रशासन और सरकार ही नहीं समाज में व्याप्त गडबडियों की ओर भी इशारा करते थे| सत्यनिष्ठा और निष्पक्षता के प्रतीक के तौर पर पत्रकारों को देखा जाता था| लेकिन आज इन्हें भी भ्रष्टाचार का कीड़ा काट चुका है| लोभ और लालच ने इन्हें भी पूरी तरह जकड रखा है और समाज से खोजी पत्रकारिता जैसी चीजें गायब हैं| पेड न्यूज़ के कारण संपादक रूपी बाड़ ही पत्रकारिता रूपी खेत को खा रही है| संपादक की सत्ता को अनुकूलित किया जा रहा है जिससे मीडिया, कॉर्पोरेट और व्यवसायिक घरानों का पुर्जा बनकर रह गया है| संपादक, दरअसल उस आदमी की आवाज़ है जिसे अनसुना किया जा रहा है लेकिन बाजारवाद और व्यावसायिकता की इस अंधी दौड में यह एक कठपुतली बनकर रह गया है|
आनेवाले समय में निश्चित ही वेब पत्रकारिता एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है| क्योंकि अब किसी की आवाज़ को दबाना इतना आसान नहीं रह गया है| संपादक नाम की संस्था के क्षरण को रोकने के लिए संपादकों को ही आगे आना होगा| अगर पत्रकार अपने पेशे के प्रति सत्यनिष्ठ रहे तो परिवर्तन के वाहक बन सकते हैं|
गिरिजेश कुमार
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