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Tuesday, March 1, 2011

बजट में जनहित का ख्याल क्यों नही रखा जाता है?

भारती परिदृश्य में अगर बजट के इतिहास को देखा जाये आज़ादी आन्दोलन के बाद ऐसे बहुत कम मौके ही आये जब बजट सवालों के घेरे में ना आया हो? चाहें वह आम बजट हो या रेल बजट या कोई राज्य का बजट? लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में सरकार और विपक्ष दो महत्वपूर्ण अंग होते हैं| बजट तैयार करना सरकार का दायित्व होता है| लेकिन बजट भाषण समाप्त होने के बाद उसका विरोध करना विपक्षी पार्टियों का दायित्व होता है| ऐसा कोई नियम नहीं है लेकिन साधारणतया यही होता है| सवाल यहां यह है कि आखिर बजट किसके हित को धयान में रखकर तैयार किया जाता है? और जनहित सर्वोपरि रहता है तो फिर सवाल क्यों उठते हैं? और क्या सच में जनहित का ख्याल रखा जाता है?

कल संसद में आम बजट पेश हुआ| आम बजट किसी भी देश की अर्थव्यवस्था और उसके विकास की दिशा तय करने वाला होता है| लेकिन वित्त मंत्री द्वारा पेश किया गया बजट इसी को परिभाषित करने में विफल रहा| सीधे शब्दों में कहा जाये तो आम बजट से ‘आम’ गायब रहा| मंहगाई, भ्रष्टाचार और काले धन के मुद्दे पर ठोस रणनीति की अपेक्षाओं और उम्मीदों को दरकिनार करते हुए इस बजट में भी पेट्रोल और डीज़ल पर करों में कमी नहीं की और आयकर में भी कोई विशेष छूट नहीं दी गयी| उलटे 130 उपभोक्ता वस्तुओं को टैक्स के दायरे में लाने का एलान उन्होंने किया| आम लोगों से सीधा सरोकार रखने वाले किताब कॉपी, निजी अस्पतालों में इलाज, कॉफी-चाय, सुपारी कंप्यूटर जैसी चीजें मंहगी की गई| इस देश में रहने वाले ज्यादातर लोग पूंजीनिवेश और शेयर बाजार जैसे भारी भरकम शब्दों को नहीं समझते| निजी इस्तेमाल की चीजें सस्ती हुई या नहीं, उन्हें इन चीजों से ज्यादा मतलब रहता है| ऐसे में यह बजट उनकी आकांक्षाओं पर पानी फेरता हुआ नजर आता है|

दरअसल आज जबकि सत्ता प्रतिष्ठान कॉर्पोरेट घरानों के इशारों पर नाचती हैं, विपक्षी पार्टियां भी कहीं ना कहीं उन्ही कॉर्पोरेट घरानों की रहमो करम की मोहताज़ हैं तो यह बड़ा सवाल उठता है कि आम बजट आम आदमी के लिए कैसे बनाया जा सकता है? लोकतान्त्रिक व्यवस्था तब झूठी लगने लगती है जब ‘आम’ पर ‘खास’ हावी हो जाता है और इसकी भरपाई गरीब और बेबस जनता के मत्थे थोप दिया जाता है| आज तक एक भी बजट ऐसा नहीं हुआ जो सरकार की नज़र में सही और विपक्ष की नज़र में गलत ना हो| लेकिन वही विपक्ष जब सत्ता में आता है तो ये कहानी उलट जाती है| ऐसे में पुरे दलीय व्यवस्था पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाता है|

गिरिजेश कुमार

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