गौरतलब है कि आत्मविश्वास की कमी, असफल होने का डर, मनोवैज्ञानिक दबाव और विषयों की गहरी समझ ना होने के कारण वे सफल होने का शॉर्ट कर्ट ढूंढते हैं| जिसमे अभिभावकों की भी सहमति होती है| दरअसल दोष सिर्फ़ बच्चों का ही है ऐसी बात भी नही है, विद्यालयों में जो संस्कार और जो शिक्षा इन्हें मिलनी चाहिए वो नहीं मिलता| आत्मविश्वास की भावना विकसित करने का जो काम शिक्षकों को करना चाहिए उन्हें करने में वो असफल रहते हैं| यहीं पर शिक्षा व्यवस्था की खामियां सामने आती हैं| कभी सामाजिक सदभाव और आपसी सहिष्णुता का पाठ पढाने वाले विद्यालय आज अपनी गरिमा को खोकर निजी स्वार्थ के रास्ते पर अग्रसर हो चुका है| मतलब भरे इस सामाजिक व्यवस्था में शिक्षा का मंदिर भी खुदगर्जी का शिकार हो चुका है| इसलिए शिक्षा से गुणवत्ता गायब है| अफ़सोस लेकिन सच है कि सरकारें सिर्फ़ अपनी छवि बनाने पर जोर देती है जिससे बुनियादी चीजें अधूरी रह जाती हैं|
मध्यमवर्गीय परिवारों से आनेवाले ये बच्चे खुद नहीं जानते की ऐसा करके वो अपने ही पैरों में खुद कुल्हाडी मार रहे हैं| परीक्षा में सफल होने के लिए नक़ल का रास्ता अपनाते अपनी जिंदगी को धोखा देते हैं| ज्यादातर अभिभावकों की सोच यही रहती है इनके बच्चे किसी तरह से पास कर जाएँ| आर्थिक स्थिति इतनी मजबूत नही होती कि अपने बच्चे को दोबारा परीक्षा में बैठने की फीस भर सकें| इनके निम्न सोच के लिए हम इन्हें भी दोष नहीं दे सकते क्योंकि पूंजीवादी सामाजिक व्यवस्था ने इनके पैरों में बेडियाँ डाली हुई हैं, और ये चाहकर भी उससे तोड़ नहीं सकते|
ये स्थिति तबतक बने रहेगी जबतक शिक्षा को प्राथमिकता नहीं दी जायेगी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया जायेगा| सरकारी विद्यालयों में ऐसी व्यवस्था विकसित करनी पड़ेगी कि वहाँ पढ़ने वाले बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की कतार में शामिल हो सकें| साथ ही साथ बच्चों में आत्मविश्वास की भावना विकसित करना भी ज़रुरी है|
गिरिजेश कुमार
आपकी कही बातों से में सहमत हूँ इसके साथ में इस बात को भी जोड़ना चाहुगी की मुझे नहीं लगता की सरकारी स्कूल के सभी अध्यापक अपनी पूरी मेहनत से बच्चों को पढ़ाते हैं या उतना प्यार देते है जिनसे बच्चे उनकी इज्ज़त करे उनकी कही राह में चल सके कुछ अध्यापक तो अपने घर के गुस्से को जो वो घर में किसी के आगे जाहिर नहीं कर सकते स्कूल में आकर बच्चों पर ही निकालते है | बच्चो को गुस्से से नहीं प्यार से जीता जा सकता है जब सिखाने का अंदाज़ ही सही नहीं होगा तो बच्चे इज्ज़त कैसे करेंगे और जिसकी इज्ज़त नहीं करेंगे तो उनकी बात उन्हें सही कैसे लग सकती है तो कहने का अर्थ ये है की जब भी कोई बात उठती है तो उसका दोष सिर्फ एक का नहीं बहुत से लोगों का होता है तो में इसमें पूरा दोष बच्चो का नहीं मानती जब तक अपनापन समर्पण की भावना नहीं होगी ये सब एसा ही चलता रहेगा वो सफलता पाने का अपना -२ तरीका अपनाते ही रहेंगे |
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा आपने दोष सिर्फ़ बच्चों का ही नहीं है| शिक्षकों को अपनी ज़िम्मेदारी का पालन करना चाहिए| उनकी निजी जिंदगी अलग है और विद्यालय का काम अलग\ ध्न्यवाद अपने अमूल्य विचारोने के लिए|
ReplyDeleteJEEVANOPYOGI AUR SHIKSHAPRAD LEKH.
ReplyDeleteबहुत सार्थक आलेख ...... आपने जो बातें इस लेख में समेटी हैं वे सारी विचारणीय हैं .......
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