डेली न्यूज़ एक्टीविस्ट मे प्रकाशित
Friday, June 24, 2011
भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लोगों का गुस्सा पैदा कर सकता है अराजक स्थिति
डेली न्यूज़ एक्टीविस्ट मे प्रकाशित
Wednesday, June 22, 2011
पटना विश्वविद्यालय: छात्रों के भविष्य के साथ क्यों हो रहा है खिलवाड़?
Patna university senate |
पहले घटाई गई, अब भेजा गया बढ़ाने का प्रस्ताव
Sunday, June 19, 2011
हम वर्चुअल दुनिया में जीना क्यों पसंद करते हैं?
एक जमाना था जब बच्चों के अंदर पिता का खौफ़ रहता था| और बच्चे पिता की मर्ज़ी के खिलाफ कुछ करने की हिम्मत नहीं रखते थे| बच्चों के भविष्य के लिए यह अच्छा भी था तो खराब भी| गलत न करने की डर और खौफ़ से एक तरफ बच्चे अंतर्मुखी स्वभाव के बन जाते थे तो दूसरी तरफ़ यह उसे अपने ही द्वारा उठाये गए क़दमों पर विचार करने को मजबूर करता था| बदलते दौर में यह स्थिति बदली| बच्चों के मन से पिता का खौफ़ दूर हुआ और मित्रवत व्यवहार ज्यादा होने लगा| हालाँकि समाज की बेहतरी के लिए यह स्थिति अच्छी थी लेकिन इसके बुरे परिणाम ज्यादा देखने को मिलते हैं| खुलेपन के आदि युवा धीरे-धीरे समाज, परिवार से कटकर इन्टरनेट और तकनीक की वर्चुअल दुनिया में जीना पसंद करने लगे| आज फादर्स डे पर इस बात की चर्चा इसलिए क्योंकि जिस उद्देश्य और जिस भावना के साथ 19 जून 1910 को वाशिंगटन के स्पोकेन शहर की एक महिला ने इसकी शुरुआत की थी और इसके 14 साल बाद वाशिंगटन के राष्ट्रपति ने इसे हर वर्ष मनाने की घोषणा की थी वह भावना आज नहीं दिखती| हम फेसबुक, ऑरकुट और ऐसे ही सोशल साइट्स पर दोस्तों को इलेक्ट्रोनिक कार्ड भेजकर या मोबाइल पर मेसेज भेजकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ बैठते हैं| जबकि हकीकत तो यह है कि जितना प्यार, समर्पण, आदर इन वर्चुअल दुनिया में दिखता है, उनकी वास्तविक जिंदगी उतनी ही कड़वी, कर्कश और दुखदायी होती है| गंभीर सवाल यह है कि क्या फादर्स डे इलेक्ट्रोनिक ग्रीटिंग्स, दिल को छू लेने वाले मैसेज और एक दूसरे को विश् कर देने तक ही सीमित है?
हालाँकि यह भी सच है कि माँ-बाप के प्रति प्यार को प्रदर्शित करने के लिए कोई खास दिन की ज़रूरत नहीं होती| हमारा भारतीय समाज भी इस विषय पर दो वर्गों में बंटा हुआ है, एक वर्ग समर्थन करता है तो दूसरा विरोध, लेकिन यहाँ हम इस दिवस के औचित्य पर चर्चा करना ज़रुरी नहीं समझते| लेकिन भावनाओं के जिस बंधन में बंधकर हमने माँ-बाप के प्यार के उस निहितार्थ को समझा और उनके लिए एक खास दिन उपहार स्वरुप देने की सोची उसके इस हश्र पर चिंतित ज़रूर हैं| कहीं हम अपने सामाजिक उसूलों और मूल्यों को दरकिनार कर अस्तित्वहीन और आधारहीन दुनिया में तो नहीं जी रहे? सामाजिक आदर्शों की बलि आखिर हम क्या पाना चाहते हैं? और क्या हाइटेक होने की यही परिभाषा है? ये ऐसे सवाल हैं जिनका ज़वाब ढूँढना ज़रुरी है|
Father's Day
हेल्प एज इंडिया संस्था के द्वारा एल्डर एब्यूज एंड क्राइम इन इंडिया नामक सर्वेक्षण के शनिवार को जारी रिपोर्ट पर अगर गौर किया जाए तो इसके अनुसार निचले सामाजिक आर्थिक परिवेश में 63.4 प्रतिशत मामलों में पुत्रवधुएँ वृद्धों से दुर्व्यवहार करती हैं जबकि 44 प्रतिशत मामलों में बेटे वृद्धों से दुर्व्यवहार करते हैं| यह स्थिति उच्च सामाजिक आर्थिक परिवेश में भी पायी गई| दिल्ली, मुंबई हैदराबाद, चेन्नई जैसे बड़े शहरों में वृद्धों के साथ मौखिक दुर्व्यवहार 100 प्रतिशत है| जबकि पटना जैसे अपेक्षाकृत छोटे शहरों में शारीरिक दुर्व्यवहार सबसे अधिक 71 प्रतिशत है| इस सर्वेक्षण में यह बात भी सामने आई कि पुत्रों पर निर्भर रहने के कारण वृद्ध महिलाऐं सबसे जयादा दुर्व्यवहार की शिकार होती हैं| राष्ट्रीय स्टार पर 70 वर्ष से अधिक वृद्धों के मामलों में दुर्व्यवहार के मामले सबसे अधिक हैं|यह सर्वेक्षण देश के 9 शहरों में किया गया था| अगर यह स्थिति है तो वाकई चिंताजनक है|
दरअसल हमारे देश की सामाजिक संरचना पिछले कुछ दिनों में ऐसी बन गयी है कि हममें पश्चिमी सभ्यता के नकारात्मक चीजों को अपनाने की होड़ सी लग गई है| हम उनसे आगे निकलना तो चाहते हैं लेकिन इतनी जल्दबाजी में कि सही रास्तों की तलाश भी ज़रुरी नहीं समझते| जिसके परिणामस्वरुप हम खुदगर्ज, स्वार्थी और आत्मकेंद्रित बन जाते हैं| और हमें विरासत में बुजुर्गों से मिले संस्कार भी याद नहीं रहते| आज संयुक्त परिवार की संकल्पना टूट चुकी है| एकल परिवार की सबसे बड़ी खामी यही है कि उसकी जिंदगी पत्नी और बच्चों तक ही सीमित हो जाती है ऐसे में बूढ़े माँ-बाप और रिश्तेदारों की फ़िक्र किसे है? वृद्धाश्रमों की बढती संख्या और उसमे बढते वृद्धों की संख्या इस बात की प्रमाण हैं| आखिर में एक सवाल यह कि पिता को समर्पित इस दिन क्या हम्म यह संकल्प लेंगे कि सिर्फ़ वर्चुअल ही नहीं वास्तविक जिंदगी में भी हम अपने बुजुर्गों का सम्मान करेंगे? फादर्स डे मनाने का असली मकसद तभी पूरा होगा|
गिरिजेश कुमार
Thursday, June 16, 2011
स्वामी निगमानंद और हमारा समाज
स्वामी निगमानंद की मौत से देश को कोई फर्क नहीं पड़नेवाला| ये मौत चंद दिनों के लिए चर्चा में रहेगा फिर सब अपनी धुन में खो जाएँगे| भले ही उन्होंने गंगा की पवित्रता के लिए खुद की बलि चढ़ा दी| मानवता के इस रक्षक के मौन बलिदान ने हमें अंदर से झकझोर ज़रूर दिया, सहानुभूति दिखाते हुए हमने बहुत कुछ कह डाला, आरोप प्रत्यारोप का दौर भी शुरू हो गया लेकिन बड़ा सवाल यही है कि सामाजिक सरोकारों के लिए सच्ची लड़ाई लड़ने वाले लोगों के प्रति आखिर इस समाज का नजरिया क्या है?
इसे विडंबना कहें या संयोग कि जिस अस्पताल में और जिस दिन बाबा रामदेव नौ दिनी नौटंकी के बाद स्वस्थ होकर हाथ हिलाते हुए बाहर निकले थे उसी अस्पताल में और उसी दिन स्वामी निगमानंद की मृत्यु हुई| भावनाओं की आंधी में बहकर जो भारतीय समाज हमेशा किसी न किसी गलत फैसले पर पहुँच जाता है, चाहे वह राजनीतिक पार्टियों के निजी स्वार्थ का मुद्दा हो या बाबा रामदेव जैसे बाबाओं का सत्याग्रह, वही समाज 68 दिनों तक भूखे रहने वाले इस साधू के दिल की बात आखिर क्यों नहीं समझ सका? और वो सरकारें तथा जनता का तथाकथित हितैषी मीडिया कौन सी कुम्भकरणी नींद में सोया हुआ था जो उस मौन बलिदानी की ख़ामोशी क्या कहना चाहती है, को नहीं समझ सका? क्या आंदोलनों के पीछे पब्लिसिटी स्टंट ज़रुरी हो गया है, जैसा बाबा रामदेव के सत्याग्रह में देखा गया? सवाल यह भी है कि बाजार का अघोषित गुलाम मीडिया के लिए क्या यह आत्ममंथन का समय नहीं है? क्योंकि जिस समय देश का सारा मीडिया बाबा रामदेव को कवर कर रहा था उसी अस्पताल के दूसरे कमरे में स्वामी निगमानंद का भी ईलाज चल रहा था लेकिन किसी ने उनकी सुध नहीं ली|
स्वामी निगमानंद को हममे से कोई मौत से पहले नहीं जानता था, कम से कम मैंने तो उनका नाम भी नहीं सुना था लेकिन जिस गंगा को बचाने के लिए उन्होंने अपनी कुर्बानी दी वो उनका व्यक्तिगत मुद्दा नहीं था| और जब कोई अपनी जिंदगी को दांव पर लगाकर समाज की बेहतरी के लिए काम करता है तो इस समाज की नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है कि उसका समर्थन करे| लेकि अफ़सोस कि हमने ऐसा नहीं किया| गंगा को बचाने के सरकारी प्रयास आज से 26 साल पहले शुरू हुआ था| लेकिन 26 सालों से जारी इस जंग में थोड़ी भी सफलता नहीं मिली| सरकारी उदासीनता और लापरवाही का यह एक नायाब नमूना है| हालाँकि यह भी सच है कि गंगा को बचाने की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ सरकारी तंत्र की नहीं है, हमारी भूमिका भी ज़रुरी है लेकिन संसाधनों की कमी को कौन पूरा करेगा?
दरअसल पूंजीवादी व्यक्तित्व में पूरी तरह कैद यह समाज सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर इतना उदासीन है कि उसे निगमानंद जैसे सच्चे मानवों की कुर्बानी की परवाह ही नहीं है| हमारी सामाजिक संरचना हमें एक अदद नौकरी तलाशने को कहता है और अपने तथा परिवार की देखभाल करने को जिंदगी का उद्देश्य समझता है| ऐसे में जब समाज सेवा की बात करने वालों को बेवकूफ समझा जाये और पैसे वाले लोगों को ही तवज्जो दी जाये तो ऐसी संरचना में विकसित हुआ मनुष्य निहायत खुदगर्ज़ और स्वार्थी नहीं बनेगा तो क्या बनेगा? लेकिन इसी समाज में अतिसाधारण सा दिखने वाला मनुष्य अगर असाधारण काम करता है और दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से उसकी मृत्यु हो जाती है तो हर समाजप्रेमी, मानवताप्रेमी और देशप्रेमी लोगों को गहरा आघात पहुँचता है| हालाँकि ख़बरें ऐसी भी मिल रही हैं कि उन्हें ज़हर देकर जानबूझकर मार दिया गया और इसमें राज्य के मुख्यमंत्री पर जिस तरह से आरोप लग रहे हैं, अगर यह सच है तो इससे दुखद, शर्मनाक, बर्बर चाहे जितने भी विशेषण जोड़ दिये जाये, बात और क्या होगी?
गिरिजेश कुमार