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Tuesday, August 31, 2010

दर्द से कराह उठा दिल

पिछले दिनों बिहार के लक्खीसराय जिले में हुए पुलिस-नक्सली और उसमे ज़वानों की मौत की खबर सुनकर एक बार फिर दिल दर्द से कराह उठा| विचारधारा के नाम पर निर्दोष ज़वानों की हत्या एक तरफ जहाँ नक्सलियों के उद्देश्य पर प्रश्नचिन्ह लगाती है वहीँ किसी भी सभ्य समाज में इसे जायज़ नहीं ठहराया जा सकता| वहीँ हम यह नहीं समझ पाते कि सरकार और तमाम अमनपसंद लोगों के लाख प्रयास के बावजूद आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़े खतरे पर काबू क्यों नहीं हो रहा है? सफल क्रांति कर पूरे दुनिया को भौंचक्क कर देने वाले महान लेनिन और मार्क्स जैसे लोगों ने क्या कभी निर्दोषों की हत्या को जायज़ ठहराया था? जिन लोगों की विचारधारा को हथियार मानकर ये लोग लड़ रहे हैं उसका औचित्य क्या है?

चंद घंटो की लड़ाई और कई लाशें फिर वही चीत्कार की करुण दास्ताँ| हर नक्सली हमले के बाद की यही स्थिति होती है जिसको देखकर किसी भी व्यक्ति का ह्रदय विचलित हो उठता है|

नक्सलियों के इस करतूत से न सिर्फ हम आक्रोशित हैं बल्कि उद्वेलित भी हैं और साथ ही साथ दिग्भ्रमित हैं| आखिर कब तक निर्दोष जवान मौत को गले लगते रहेंगे? जल, जंगल और ज़मीन नहीं छीनने देंगे का नारा देने वाले नक्सली जिंदगी और ज़वान छीनने पर उतारू हैं| इस दुनिया का हर धर्मग्रन्थ का सार एक ही है, हम इंसान हैं और इंसानियत की रक्षा हमारा धर्म है| लेकिन नक्सली इस इंसानियत के धर्म को ही पैरों तले रोंदने का काम कर रहे हैं|

यह दीगर बात है कि यहाँ समस्याएं हैं, और व्यवस्था परिवर्तन उसका हल हो सकता है लेकिन हमारा रास्ता क्या हिंसा का होना चाहिए? यह आंदोलन निश्चित ही अन्याय के खिलाफ शुरू की गई थी लेकिन आज इसका उद्देश्य सिर्फ अशांति फैलना रह गया है| इसको आगे ले जाने की जिम्मेवारी उनकी थी जिनका विचारों से गहरा नाता था| लेकिन अफ़सोस कि लोगों ने निजी स्वार्थ को ज्यादा तरजीह दी|

आज हम उस हालात में पहुँच गए हैं जहाँ इस समस्या का हल निकालना ज़रुरी हो गया है| इसके लिए प्रशासनिक तंत्र को निहायत ही मज़बूत भूमिका नभानी होगी| हर बार सवाल संसाधनों की कमी का उठता है जिसके बिना शायद हम ये लड़ाई नहीं लड़ सकते| इसलिए ज़रूरत इस बात कि है विचारधारा की आड़ में निर्दोष जवानों की हत्या पर रोक लगनी चाहिए| क्योंकि वो ज़वान भी परिवार और पेट के लिए बन्दूक उठाने पर मजबूर हैं| इस हिंसा और मारकाट की लड़ाई पर तत्काल रोक लगनी चाहिए ताकि मानव सभ्यता पर फिर काला धब्बा न लगने पाए|

Saturday, August 21, 2010

नई इबारत लिखेगा राष्ट्रमंडल खेल

अगले महीने राष्ट्रमंडल खेल शुरू होने जा रहे हैं| १२ दिन चलने वाले इस आयोजन में ८२ देशों के लगभग ८००० खिलाडी भाग ले रहे है| जब इतना बड़ा आयोजन हो रहा है तो निश्चित ही बड़े बजट की आवश्यकता होगी| इसकी तैयारी के लिए अरबों रूपये खर्च भी किये गए| लेकिन अब यह सवाल उठ रहा है कि भारत जैसे देश में क्या राष्ट्रमंडल खेल होने चाहिए? उन परिस्थितियों में जब एक तरफ आम लोग गरीबी, भूखमरी, मंहगाई, बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं| अरबों रूपये खर्च कर राष्ट्रमंडल जैसे खेल के आयोजन की सार्थकता क्या है? अगर यही पैसा देश की मूलभूत सुविधाओं पर खर्च किया जाता तो इस देश का अभूतपूर्व विकास होता|

इन तर्कों को अगर सच की कसौटी पर कसा जाये तो इसका वितर्क नहीं है| सवालों को अगर वर्तमान परिस्थितियों की नज़र से देखें तो बिलकुल जायज हैं| लेकिन क्या इसके लिए हम सच्चाई को नकार सकते हैं? कदापि नहीं| आखिर हमारे यहाँ गरीबी क्यों है? क्योंकि हमने आजतक उनकी ओर ध्यान ही नहीं दिया| कभी उसे समाप्त करने का प्रयास ही नहीं किया| राजनेताओं ने गरीबों का कुर्सी से चिपके रहने के लिए उपयोग किया| अगर कुछ कार्यक्रम शुरू भी किये गए तो वो चंद लालची और खुदगर्ज़ लोगों की भेंट चढ गया| इसलिए आज हम गरीबी का रोना रोते हैं| हमारे यहाँ लोग भूख से क्यों मरते हैं? इसलिए नहीं की खाने के लिए अनाज नहीं है बल्कि इसलिए कि, नीतिनिर्धारक उसे गोदामो की शोभा बढाने के लिए रखना चाहते हैं| बेशर्मी की हद को पार करते हुए हमें इसका अफ़सोस भी नहीं होता| देश की सरकारों को आम लोगों की जिंदगी से जुड़े सवालों से कोई सरोकार ही नहीं है| कुर्सी की भूख और सत्ता के लालच ने इन्हें इतना अंधा बना दिया है कि उस सीढ़ी के पहले पायदान(जनता) को ही तोड़ने (नज़रंदाज़ करने) में शर्म नहीं आई| इसी तरह देश में व्याप्त हर समस्याओं के पीछे एक ठोस कारण है| जिसके समाधान को ढूँढने की ज़रूरत है|

यह हमारी मेहनत और इच्छाशक्ति का ही परिणाम है कि आज विश्व समुदाय हमपर भरोसा कर रहा है| हमने खुद को इस काबिल बनाया कि राष्ट्रमंडल जैसे खेलों की मेजबानी हमें सौंपी गई| इसका आयोजन हमारे लिए गर्व की बात है| इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि इस आयोजन को देश की संप्रभुता से जोड़ते हुए इसका सफल आयोजन करें| हर नागरिक का भी ये कर्तव्य है कि इसे सफल बनाने में सहयोग करे| भारतीय इतिहास में कुछ तारीखों ने वो इबारत लिखी जिसकी प्रति आज भी स्वर्णाक्षरों में मिल जायेगी| हम उम्मीद करते हैं कि राष्ट्रमंडल खेल ऐसी ही इबारत लिखेगा|

Monday, August 16, 2010

आज़ादी के मायने?

कल हमने आज़ादी की ६३वी वर्षगांठ मनाई| ये समय बढ़ता जायेगा और हम एक दिन सौवीं वर्षगांठ भी मनाएंगे |लेकिन इस सबके पीछे कुछ छुट जायेगा तो वो सवाल जो हर गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर दोहराया जाता है| जैसे क्या हमारा वो सपना पूरा हो पाया जो आजाद भारत के लिए हमारे महापुरुषों ने देखा था? क्या वास्तव में भारत आज़ाद हो पाया है ?वगैरह ..वगैरह |संविधान निर्माताओं का कुछ सपना था |बुनियादी तौर पर आज़ाद भारत के लिए| यह हमारे देश के लोगों की मेहनत और इक्षाशक्ति का ही परिणाम है की विश्व आज भारत को एक महाशक्ति के रूप में देख रहा है |

अरस्तु और प्लेटो हो या महात्मा गाँधी और नेल्सन मंडेला इन सबका का एक ही मत था की वंचितों के साथ न्याय हो |अरस्तु अगर सम्पत्तिवान के बदले निर्धनों के शासन की बात करते हैं तो महात्मा गाँधी को क़तार में खड़े अंतिम व्यक्ति की चिंता है | इन सबके सोच में एक ही समानता है और वह है आम आदमी की बेहतरी |ये ऐसे मूल्यों को लेकर चले जिन्हें कोई भी गणतंत्र अपना आदर्श मान सकता है |किसी भी समाज की सफलता इस बात पर निर्भर करती है की वह समाज कमजोरों को कितनी जगह देता है |हमारे यहाँ कमजोर कौन है -कमजोर है आर्थिक रूप से गरीब ,पिछड़े हुए दलित आदिवासी लोग| और दुर्भाग्य से ऐसे लोगों की संख्या हमारे यहाँ ज्यादा है |

आज हम स्वतंत्रता दिवस संगीनों के साये में मनाने को विवश हैं| स्वतंत्र भारत जहाँ एक तरफ गरीबी, मंहगाई, भ्रष्टाचार, आतंकवाद जैसी समस्याओं से जूझ रहा है तो दूसरी तरफ नक्सलवाद और माओवाद इसे अंदर से खोखला करने का प्रयास कर रहे हैं| कमजोर इक्षाशक्ति और बिखरी हुई मानसिकता का परिणाम ये है की आजतक हमारे यहाँ अशिक्षा व्याप्त है| जागरूकता के अभाव का फायदा राजनेता उठाते हैं|

युवा पीढ़ी के अंदर सामाजिक जिम्मेदारी के अभाव में ज़रूरत इस बात की है कि हम अपने अंदर इस सवाल का ज़वाब तलाश करें कि पिछले ६३ सालों में हमने किन कमियों को नज़रंदाज़ किया? इस आज़ादी के मायने क्या हैं? बन्दूक की नोक और भय के साये में आखिर कब तक हम अपने आप को स्वतंत्र कहेंगे?

Wednesday, August 11, 2010

आज भी अधूरे हैं सपने

11 अगस्त 1908, यही वो दिन था जब अंग्रेजी साम्राज्य की छाती पर पहला बम फेंकने वाले 19 साल के युवक खुदीराम बोस को फांसी दी गयी थी| यह बम उस गुस्से का प्रतीक था जो अंग्रेजी शासन के प्रति भारतीय युवाओं में व्याप्त था| उनकी शहादत को सौ साल से भी अधिक हो चुके हैं लेकिन उनकी वीरता और देशभक्ति हमें आज भी देश के लिए कुछ कर गुजरने को प्रेरित करते हैं| अत्याचारी किंग्सफोर्ड को मारने के इरादे से फेंके गए बम से किंग्सफोर्ड भले ही बच गया हो लेकिन इसने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव ज़रूर हिला दी थी|

लेकिन हमें अफ़सोस होता है जिन सपनों को आँखों संजोये हुए हमारे देश के महान सपूतों ने कुर्बानी दी वो सपना आज आज़ादी के 64 सालों बाद भी अधूरा है| आज़ादी का ये मतलब कतई नहीं था की जॉन की जगह गोविन्द बैठ जाये| अंग्रेजों के चले जाने के बाद हमारी जुवां ज़रूर आज़ाद हुई है लेकिन सांस के ऊपर अभ भी पहरा है| हम जानना चाहते हैं इस देश के कर्णधारों से कि आखिर उस उन्नीस साल के खुदीराम को क्या ज़रूरत थी अपने प्राणों की आहुति देने की? चंद पैसों और झूठी शोहरत के लालच में जो लोग देश की मर्यादा से खिलवाड़ करते हैं क्या उन्हें खुदीराम जैसे शहीदों से सीख नहीं लेनी चाहिए? उनका सपना था देश के हर लोग खुली हवा में अपनी मर्जी से जी सकें, प्रत्येक देशवासी के चेहरे पर मुसुकुराहट की चाह थी उनकी|

लेकिन आज़ादी के बाद से आजतक हम देख रहे हैं सरकारें सिर्फ लोगों को ठगने का काम कर रही हैं| भ्रष्टाचार, भूख गरीबी से आम लोग आजतक नहीं उबार पाए हैं| शिक्षा ,स्वास्थ्य रोजगार की हालत में बहुत ज्यादा सुधार नहीं हुआ है| देश के लिए खुद को कुर्बान करने वालों के नाम को भी भुला देने की साज़िश रची जा रही है| इसलिए हम कहीं भगत सिंह को नहींपढते, खुदीराम के बारे में नहीं जानते| इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि इन लोगों को अपना आदर्श मानते हुए देश और समाज में हो रहे अन्याय को समाप्त करने के लिए एकजुट होकर प्रयास किया जाये| इन शहीदों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी| वरना इन शहीदों को भुला देने की जो साज़िश रची जा रही उसके शिकार हम भी हो जायेंगे|