लोकतंत्र पर मंडरा रहा है खतरा
विविधताओं से भरे इस देश में व्यवस्थागत अराजकता फैले यह हममे से कोई नहीं चाहेगा लेकिन जो परिस्थितियां हाल के दिनों में देश में बनी हैं, जिस तरह से संसद और समाज आमने-सामने दिख रहे हैं या कहें कि संसद और समाज के बीच दुरी बढ़ी है वह इशारा उसी व्यवस्थागत अराजकता की ओर कर रही है जिनसे हम बचना चाहते हैं| सवाल है क्या संसद और समाज के बीच यह दुरी जायज है? जिस संसदीय व्यवस्था की परंपरा आज़ादी के बाद से इस देश में चली आ रही है कहीं यह उसके खात्मे का संकेत तो नहीं है? पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान अपने अलोकतांत्रिक नीतियों के कारण ही आज अव्यवस्थित है| ये सवाल इसलिए भी बहस की मांग करते हैं क्योंकि निहित स्वार्थ के खातिर राजनीतिक दलों ने देश की रीढ़ यानी आम जनता को इतना नुकसान पहुंचाया है कि उसके खिलाफ लोग अब गोलबंद होने लगे हैं| यह निराशा कभी-भी भयंकर रूप ले सकती है लेकिन क्या शासन सत्ता में बैठे लोगों को इसकी भनक है?
ऐसे में जब अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन को आखिरी लड़ाई के रूप में आह्वान कर दिया है स्थितियाँ बिगड़ने के हालात ज्यादा हैं| दरअसल सवाल सिर्फ जनलोकपाल विधेयक और भ्रष्टाचार का ही नहीं है| कई मुद्दे हैं जिनसे लोगों का संसदीय व्यवस्था से विश्वास उठता जा रहा है| जिनमे मंहगाई, बेरोजगारी, आर्थिक असमानता, जैसे मुद्दे प्रमुख हैं| सच यह भी है कि एक तरफ़ लोग सम्मानजनक जिंदगी जीने की कोशिश में दिनरात एक करते हैं तो दूसरी तरफ़ सुविधासंपन्न लोग हैं| दोनों के बीच बढ़ रही खाई निराशा की चरम सीमा तक पहुंच चुकी है| इसलिए समझना यह भी पड़ेगा कि यह निराशा सामाजिक नियमों, आदर्शों और मूल्यों को नजरंदाज कर हक और अधिकार में अंतर समझे बिना लोगों को उपद्रवी बना सकती है और वह स्थिति निश्चित ही सभ्य समाज के लिए अच्छी नहीं होगी| और फिर लोकतान्त्रिक व्यवस्था में आम जनता को ज्यादा दिनों तक बेवकूफ बनाना भी आसान नहीं है| लेकिन वोट बैंक और कुर्सी के लालच में देश को बांटने से भी पीछे न हटने वाली पार्टियां क्या अपने अंतर्मन से ये सवाल पूछेंगी? ज़ाहिर है नहीं|
इस बीच सांसद का सत्र भी चल रहा है| हंगामों और संग्रामों की आशंकाओं के बीच अबतक ठोस बहस किसी मुद्दे पर दिखाई नहीं दी है| मंहगाई जैसे मुद्दों पर बहस के लिए 80% सांसदों का अनुपस्थित रहना सांसदों की आम जनता से जुड़े मुद्दों पर गंभीरता को समझने के लिए काफी है| कभी जनता से जुड़ी समस्याओं पर गंभीर बहस की जगह संसद आज सिर्फ औपचारिकता बनकर रह गया है| जहां तीखे सवाल तो होते हैं, सरकार और विपक्ष एक दूसरे को घेरने में भी कोई कसर नहीं छोड़ती लेकिन देशहित के लिए नहीं, कुर्सी पाने या बचाने के लिए| फिर सवाल है जब संसद अपने लक्ष्य से भटक जाए तो फिर संसदीय व्यवस्था के मायने क्या हैं?
दूसरी तरफ केन्द्र सरकार की जनआकांक्षाओं से जुड़े जनलोकपाल बिल पर जिस तरह से उदासीन दिखी और दिख रही है उसने सरकार के खिलाफ लोगों के गुस्से को भड़काने का काम किया है| यानी लोकतांत्रिक व्यवस्था के नियमों को कुचलकर सरकार ने जनता की भावनाओं का भी मजाक बनाया| इसलिए आज स्वतंत्रता दिवस यानि 15 अगस्त की चर्चा के बदले 16 अगस्त की चर्चा लोगों के जुबान पर है| समर्थन कितना मिलेगा य सरकार क्या रुख अपनाएगी यह तो आनेवाला वक्त बताएगा लेकिंन आम लोगों का संसदीय व्यवस्था से इस तरह भरोसा उठना लोकतंत्र के लिए खतरनाक है|
गिरिजेश कुमार
बहुत अच्छा आलेख. मेरा विचार है कि अन्ना हज़ारे से तो सरकार निपट लेगी और उसे पृष्ठभूमि में धकेल देगी. आपने जिस दूसरे खतरे का संकेत किया है कि संसद बँटे हुए समाज पर राज्य कर रही है और देश के प्रति संवेदनहीन हो चुकी है, वह खतरा जन-घृणा (आक्रोश नहीं)के रूप में घना होने लगा है और उसे पतला कर पाना सरकार और मीडिया के बस का नहीं रहा. आपकी चेतावनी सामयिक है.
ReplyDeleteबहुत ही सामयिक विचारणीय लेख ...
ReplyDeleteअन्ना हजारे की उपेक्षा सत्ताधीश भले कर लें किन्तु आम जन के आक्रोश को रोक पाना उनके बस में नहीं है |
सचमुच, ये चिंता का विषय है।
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बारात उड़ गई!
ब्लॉग के लिए ज़रूरी चीजें!
कल 24/08/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
विचारणीय आलेख .....ऐसी परिस्थिति के लिए सरकार खुद जिम्मेदार है
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