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Saturday, July 31, 2010

महान साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद और आज का समाज


भारतीय नवजागरणकालीन हिंदी कहानी की चर्चा करते हुए अनायास ही जिसपर सबकी निगाह टिकती है वे हैं प्रेमचंद| ३१ जुलाई जिनकी जयंती है| उन्होंने अपनी कलम का इस्तेमाल उन सदियों पुराने अंधविश्वासों और शोषण के खिलाफ किया था जों पूरे भारतीय समाज को जकडे हुई थी| उन्होंने अपने लेखों के जरिये जनवादी और मानवीय मूल्यों,व्यक्ति स्वतंत्रता और नारी मुक्ति की तस्वीर खींची| राजाराम मोहन राय,विद्यासागर,बंकिमचंद्र चटर्जी,तोल्स्तोय,गोर्की जैसे दुनिया के महान साहित्यकार और समाज सुधारकों की गहरी छाप उनपर थी  जिन्होंने धार्मिक अंधविश्वासों के स्थान पर आधुनिक शिक्षा व धर्मनिरपेक्ष मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए संघर्ष किया था| प्रेमचंद ने कहा –“साहित्य का एकमात्र उद्देश्य और आदर्श सामाजिक प्रगति होना चाहिए”  
                                        आखिर प्रेमचंद जैसे साहित्यकार की प्रासंगिकता आज के समय में क्या है ? जब समाज के हर कोने घीसू और माधव दिखाई देते हैं तो प्रेमचंद की प्रासंगिकता समझ में आती है| जब लोग आज भी भाग्य और भगवान के भरोसे पूरी जिंदगी अन्याय और अत्याचार सहकर गुजार देते है तब प्रेमचंद की प्रासंगिकता दिखाई देती है|
                                       मुंशी प्रेमचंद ने शिक्षा को सर्वसुलभ करने की बात कही थी लेकिन आज हम देख रहे हैं सरकारें ठीक इसका उल्टा कर रही हैं|शिक्षा खर्च जनता के ऊपर लादा जा रहा है और शिक्षा नीति को बंद कमरे में नौकरशाह तैयार कर रहे हैं|इसलिए प्रेमचंद ने कहा था “जब शिक्षा के गले में परतंत्रता की बेडियाँ पड़ गई तो उस शिक्षण संस्थान की गोद में पले हुए छात्र भी गुलाम मनोवृत्ति के मनुष्य हो तो कोई आश्चर्य नहीं”
                                        प्रेमचंद अगर चाहते तो आराम से अपनी जिंदगी गुजार सकते थे लेकिन आम गरीब,बेबस और असहाय लोगों के प्रति उनके दिल में जों जगह थी उसकी वजह से ही उन्होंने उस आरामदायक जीवन का त्याग कर इस जीवन को अपनाया था| इसी के परिणामस्वरुप १९२० में असहयोग आंदोलन के समय उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और १९२४ में अलवर के राजा के सचिव पद का निमंत्रण ठुकरा दिया|यही नहीं उन्होंने अंग्रेजों द्वारा दी गई राय साहब के ख़िताब को भी लौटा दिया|इसलिए ही वे उपेक्षित,उत्पीडित व दबी कुचली मानवता के प्रति अपनी कलम की प्रतिबद्धता को जीवन के अंतिम क्षणों तक बनाये रख सके|
                                           आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र – नैतिक,सांस्कृतिक,शैक्षणिक,साहित्यिक,आर्थिक,राजनितिक हर दिशा में अधोपतन तीव्रतर हो रहा है| मानवीय मूल्यबोध,सांप्रदायिक सौहाद्र,इंसानी रिश्ते निरर्थक साबित हो रहे हैं| अश्लील सिनेमा साहित्य युवक युवतियों  के चरित्र को गिरा रहे हैं| आज़ादी के इतने सालों बाद भी मजदूरों और किसानों की हालत में सुधार की बात तो दूर और बदतर हो गई है| सेज जैसी स्कीमों से देश भर में लाखों एकड़ उर्वर ज़मीन से हजारों किसानो को जबरन हटा दिया गया| आज हमें इन बुराइयों के खिलाफ सांस्कृतिक और राजनैतिक आंदोलन को मजबूत करने के लिए प्रेमचंद की तरह ही निःस्वार्थ त्याग और बलिदान की भावना से संघर्ष साहस और विज्ञानसम्मत चिंतन व इंसानियत के झंडे को हाथ में लेकर हर दरवाजे पर दस्तक देनी होगी| यही प्रेमचंद को सच्ची श्रद्धांजलि होगी| और उन्हें याद करने का सही तात्पर्य भी यही है|  

Thursday, July 29, 2010

संविधान का पुनर्लेखन: एक विचारणीय प्रश्न


किसी भी समाज और सामाजिक व्यवस्थाओं को सुचारू ढंग से संचालित करने के लिए नियम की आवश्यकता होती है| अगर समाज को एक कड़ी कहा जाये तो कड़ियों के मिलने से राज्य बने और राज्यों के मिलने से देश| इस देश को भी चलाने के लिए नियमों की एक किताब लिखी गयी जिसे हमने नाम दिया ‘संविधान’| पिछले दिनों बिहार विधानसभा,उत्तरप्रदेश विधानसभा सहित देश की संसद में जिस तरह से संसदीय लोकतंत्र की धज्जियां उडाई गई उससे आज यह एक विचारणीय प्रश्न है कि क्या हम पूर्णरूप से  संवैधानिक मूल्यों का पालन कर रहे हैं? वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जब देश के कर्णधार ही संविधान के नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं यह सवाल भी उठता है कि क्या भारतीय संविधान को पुनः लिखने की आवश्यकता है? आज यह एक ऐसा विषय है जिसपर देश के प्रत्येक नागरिक को गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है|
                                            कार्यपालिका,न्यायपालिका और विधायिका में सबसे महत्वपूर्ण काम विधायिका का है,क्योंकि कानून बनाने की जिम्मेदारी इन्ही के ऊपर है|इसलिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया का यह अंग अगर गैरजिम्मेदाराना व्यवहार करने लगे तो फिर उस देश का भविष्य ही अँधेरे में डूब जायेगा|यह इस देश का दुर्भाग्य है कि यहाँ इस स्थान पर ऐसे लोग बैठे हैं जो निहायत ही देश के चलाने के काबिल नहीं| वातानुकूलित कमरे में बैठकर ज़मीनी सच्चाई को नहीं जाना जा सकता|अगर हम पिछले ६३ सालों के संवैधानिक इतिहास पर नज़र डालें तो लगभग १०० बार संविधान में संशोधन किया गया| कुछ चीज़ें जोड़ी गयी ,कुछ चीजें हटाई गई|लेकिन हकीकत इस बात की चीख चीख कर गवाही दे रहा है कि आम जनता की समस्याएँ हल नहीं हुई|इसलिए लोग अब इन नियमों से मुह मोड रहे हैं|
                                         हमारा संविधान ऐसे लोगों को भी चुनने की आज़ादी देता है जिनके अंदर तार्किक क्षमता के नाम पर कुछ नहीं रहता| इसलिए ये लोग कभी गंभीर मुद्दों पर बहस में शामिल नहीं होते इनका काम सिर्फ और सिर्फ हंगामा करना रह जाता है|जों हमारे संविधान पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा कर रहा है|कहने को तो हमारा  देश धर्मनिरपेक्ष समाजवादी गणतंत्र है लेकिन  धर्म के नाम पर सबसे ज्यादा दंगे यहीं भडकते हैं| यह संबिधान सबको समानता का अधिकार देती है लेकिन वास्तविकता यह है कि यहाँ अमीर और गरीब के बीच इतनी गहरी खाई है जिसे कभी पाटा नहीं जा सकता| तब सवाल यह उठता ऐसे संविधान का क्या मतलब जिसकी अवहेलना हर कदम पर होती हो,जिसका उल्लंघन नेता  अपना बड़प्पन समझते हों| कोई भी व्यवस्था तब फेल कही जाती जब उसके सदस्य उससे कन्नी काटने लगे,इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि इन खामियों को दूर करते हुए संविधान को फिर से बुद्धिजीवियों और शिक्षाविदों के सहयोग से लिखा जाये और एक नए सिरे से इस पूरे व्यवस्था को परिवर्तित किया जाये जिससे सच में भारत एक संप्रभु समाजवादी गणराज्य बन सके और फिर कोई इस संविधान का मजाक बनाने की हिमाकत न कर सक|

                                           

Wednesday, July 28, 2010

शर्मसार हुई मानवता


पूरी दुनिया को जिस भगवान महावीर ने इंसानियत और मानवता का पाठ पढाया उन्ही की जन्मभूमि वैशाली में कल मानवता शर्मसार हुई| पूरे गाँव के सामने जिस तरह से लड़के की पिटाई की गई वह अभी भी यह दर्शाता है कि भले ही हम चीख-चीख कर आधुनिकता की खाल ओढने का दावा करें लेकिन हमारी मानसिकता उसी पाशविक विचारधाराओं पर आधारित है जब मानव समाज पर दास प्रथा नामक कोढ़ का राज कायम था| हम खुद को अभी भी झूठी शान और रुढिवादी मानसिकता के चंगुल से बाहर नहीं निकाल पाए हैं|
                                           किसी भी सभ्य समाज में दुष्कर्म जैसे कुकृत्य और इसके प्रयास या गाँव की महिलाओं,लड़कियों के साथ दुर्व्यवहार को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता, लेकिन क्या इसके लिए हम मानवता की हत्या कर सकते हैं? क्या इंसानियत के सारी सीमाओं को तोड़कर किसी समाज को भयमुक्त बनाया जा सकता है, जहाँ फिर कोई राजेश पैदा न हो? यह कैसी पंचायत है जो किसी की जान की कीमत पर न्याय का झूठा दंभ भरती है? महान साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद ने तो ‘पंच परमेश्वर’ में पंचो को खुदा का बन्दा कहा था जिसके मुहं से हमेशा सच्चाई निकलती है,जों दूध का दूध और पानी का पानी कर दे| लेकिन अगर आज वो जिन्दा होते तो शायद उन्हें पंच की नयी परिभाषा गढनी पड़ती|
                                         सवाल उस सरकार और उसके तंत्र पर भी उठता है जों सुशासन का दंभ भर रही है| बताया ये जा रहा है कि जिस जगह ये घटना हो रही थी वहाँ से सिर्फ १ मील की दुरी पर ही थाना था लेकिन थाने को खबर ही नहीं मिली| प्रशासन और प्रशासनिक तंत्र सवालों के घेरे में तभी आता है जब वह अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ने का प्रयास करता है| जिस जगह पर पूरे देश की मीडिया पहुँच गई उस जगह पर पुलिस नहीं पहुँच पाई जों उसकी नाकामी की गवाही देता है|हम समझ नहीं पा रहे कि आखिर इस व्यवस्था को क्या हो गया है? क्या  वर्तमान सामाजिक व्यवस्था कोमा के उस दौर से गुजर रही जहाँ शरीर जिंदा तो रहता है लेकिन कुछ काम नहीं कर पाता? इस हालत को देखकर तो यही कहा जा सकता है|
                                     ह्रदय क्षुब्ध है जुबान बंद| लेकिन सवाल यह है कि आखिर कबतक यूँ ही सजा देने के नाम पर मानवता की हत्या होती रहेगी? इंसानियत का क़त्ल होता रहेगा? वक्त की नजाकत यह सवाल उठा रही है कि जिस धरती पर भगत सिंह,सुभाष चंद्र बोस,चंद्रशेखर आज़ाद जैसे लोग पैदा हुए,जिन्होंने अन्याय और अत्याचार के खिलाफ ब्रिटिश साम्राज्य से लड़ाई लड़ी उसी देश में चंद मुठ्ठीभर लोग कैसे अपना राज कायम कर पा रहे हैं? उन्ही युवाओं के सामने यह आज यक्ष प्रश्न बनकर खड़ा है कि आखिर कबतक चुपचाप सब सहते रहोगे? आज नहीं तो कल इसका ज़वाब ढूँढना ही पड़ेगा| लेकिन डर यह है कि कहीं ऐसा न हो कि ज़वाब तब मिले जब हमारे हाथ से सबकुछ इतना दूर चला जाए कि सिर्फ पछताने के सिवा और कोई चारा न हो|

Monday, July 26, 2010

सांस्कृतिक विरासतों से दूर होती युवा पीढ़ी

पिछले दिनों कला एवं संस्कृति विभाग बिहार सरकार की ओर से भारतीय नृत्य कला मंदिर में आयोजित कार्यक्रम ‘शनिवाहार’ में जाने का मौका मिला|उस दिन ओडिसी नृत्य और तबला वादन का कार्यक्रम था| कलाकारों ने मन तो मोह लिया लेकिन दिल में एक कसक आज तक रह गई कि संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए आयोजित इस कार्यक्रम में दर्शक दीर्घा खाली पड़ी थी| कुछ गिने चुने लोग थे जिसमे अधिकांश वहीँ के शिक्षक और कर्मचारी थे| मन में ये सवाल उठा कि आखिर लोग सांस्कृतिक विरासतों से दूर क्यों हैं? किन वजहों ने लोगों को अपनी सांस्कृतिक झलक पाने के लिए मजबूर नहीं किया? खासकर आज की युवा पीढ़ी की अगर हम बात करें तो सांस्कृतिक धरोहरों से वह और भी उदासीन है जो वास्तव में गंभीर चिंता का विषय है|
पूरी तरह से पाश्चात्य संस्कृति की जंजीरों में कैद युवा पीढ़ी आज अपने ही संस्कृति से मुह मोड़ती नज़र आ रही है|आधुनिकता की खाल ओढ़े इस समाज में संस्कृति की रक्षा के तथाकथित ठेकेदार तो हैं लेकिन उन्हें सिर्फ अपने स्वार्थ की पूर्ति में ही अपना उद्देश्य नज़र आता है|तब सवाल यह उठता है कि आखिर खुद के इस हालत से बाहर निकलने का रास्ता कौन बताएगा?
हमारे सामने समस्या यह है कि हम युवाओं को दोष तो दे देते हैं लेकिन वास्तविक सच्चाई को नज़रअंदाज कर देते हैं|उचित प्रचार और सही ज्ञान के अभाव में युवा अपनी संस्कृति को समझ नही पाते ऐसे में ज्यादा तढक- बढक वाले पाश्चात्य संस्कृति की कैद में युवा आसानी से आ जाते हैं,जिसके लिए सीधे तौर पर केंद्र और राज्य की सरकारें जिम्मेदार हैं| ज़रूरत इस बात की है कि युवाओं के अंदर सांस्कृतिक कार्यक्रमों के प्रति रूचि पैदा कि जाये,उन्हें अपनी देश कि सांस्कृतिक विरासतों के बारे में बताया जाये ताकि अपने देश कि संस्कृति कि गरिमा बनी रहे|

Friday, July 23, 2010

इस तथाकथित आधुनिक समाज के बंधन तोड़े लडकियां

नफीसा,कुलजीत रंधावा,गीतांजलि और विवेका बाबाजी जैसी चर्चित मॉडलों की आत्महत्या से एक नए बहस की शुरुआत हो गई है| लड़कियों के मॉडल बनने पर भी प्रश्नचिन्ह लगे हैं| तो क्या सचमुच लड़कियों के लिए फैशन की दुनिया में कोई जगह नहीं है? क्या इस चकाचौंध भरी फैशन की दुनिया में सिर्फ अँधेरा ही अँधेरा है,जहाँ लडकियां उपयोग के लिए होती हैं? निश्चित ही इस देश के हर ज़िम्मेदार नागरिक को इस विषय पर सोचने की ज़रूरत है|
सौंदर्य के पुजारी हम भी हैं| सुंदरता हमें भी आकर्षित करती है|लेकिन इस सुंदरता में बदतमीजी का लेप हमें बर्दाश्त नहीं है| वर्षों से पारंपरिक बंधनों में कैद इस समाज के खुलेपन का हम स्वागत करते हैं लेकिन इसके लिए खुद की संस्कृति और इज्ज़त का समझौता कहाँ तक उचित है? फैशन की दुनिया के हर तरफ अगर हम नज़रें उठाकर देखें तो यही सच्चाई सामने आती है| सवाल है हकीकत को आप कितनी देर तक छुपा सकते हैं? जो लडकियां फैशन के क्षेत्र में कैरियर बनाना चाहती हैं उनके सामने तो ग्लैमर की चमचमाती हुई दुनिया नज़र आती है लेकिन अंदर की सच्चाई उनके ऊपर न सिर्फ बिजली गिराती है बल्कि उन्हें इस आग में तबतक जलना पड़ता है जबतक वो खुद की इहलीला समाप्त नहीं कर लेती| हमें तब और भी अफ़सोस होता है जब ये मॉडल मौत को गले लगाती हैं,दो-तीन दिनों तक मीडिया में सुर्ख़ियों में रहती हैं,जांच के आदेश होते हैं और फिर सबकुछ खत्म हो जाता है| क्या इस रास्ते समाधान हो सकता है?
पूरी तरह पूंजीवाद के जंजीरों में बंधे इस सामाजिक व्यवस्था में इंसान भी बिकाऊ हो गया है| इस बंधन ने सबसे ज्यादा लड़कियों और महिलाओं को जकडा है,एक तो वैसे ही पुरुष प्रधान मानसिकता वाले इस समाज में महिलायें अंतिम कतार में खड़ी रहने को मजबूर हैं,दूसरे इस भ्रष्ट सिस्टम के संवेदनहीन मनुष्य ने रही -सही कसर भी पूरी कर दी है |
किसी समस्या का समाधान उससे मुंह मोड लेना नहीं है| लेकिन अगर हम समस्याओं को ही नहीं पहचानेंगे तो उसका समाधान कैसे निकलेगा? कोई भी इस सवाल को नहीं उठा रहा है कि आखिर मॉडल आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? हाँ,यह बहस ज़रूर छिड गई कि लडकियों के लिए फैशन नहीं है| अगर खुद के अंदर ऐसी सोच विकसित हो जो लड़कियों को उपयोग की वस्तु न समझें तो किसी भी क्षेत्र में महिलाओं के लिए ये सवाल नहीं उठाये जायेंगे|साथ ही उन लड़कियों को भी आगे आना होगा जो इस तथाकथित आधुनिक समाज के बंधनों को तोड़ पाने में अबतक नाकाम रही हैं,क्योंकि आखिर अंतिम लड़ाई उन्हें ही लड़नी पड़ेगी|

Thursday, July 22, 2010

लोकतंत्र की मर्यादा आहत

दो दिनों से विधानसभा में जो कुछ भी रहा है उससे न सिर्फ लोकतंत्र कि मर्यादा आहत हुई है बल्कि लोगों का विश्वास भी नेताओं से उठ चुका है |लोकतंत्र में विपक्ष को विरोध करने का अधिकार है,जनता के हित से जुड़े सवालों को पूछने का हक है लेकिन क्या इसके लिए लोकतंत्र की मर्यादाओं का खून किया जा सकता है? एक दिन के बैठक में लाखों रूपये खर्च होते हैं,ये पैसा उस जनता के खून पसीने की कमाई है जो इन्हें अपना नेता मानते हैं लेकिन उन्ही की हक के खातिर जब नेताओं के आवाज़ उठाने की बारी आती है तो संसद हो या विधानसभा,ये नंगा नाच करते हुए दिखाई देते है| सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर कब तक यूँ ही जनता को बरगला कर उसकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे?
बिहार विधानसभा में जो कुछ हुआ उससे सिर्फ बिहार ही नहीं पूरा देश शर्मसार है| जिन लोगों पर राज्य को चलाने की जिम्मेदारी है वही गैरजिम्मेदाराना हरकत करते हैं| हम शर्म आती है इनके करतूतों पर| इसकी ज़िम्मेदारी ज़रूर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की है| इस घटना ने बिहार के बदले हुए चेहरे पर काली चादर डाल दी है जिसके जिम्मेदार खुद्द वहीँ हैं जिनके ऊपर इस छवि को बदलने की जिम्मेदारी थी| खुद को जनता का रहनुमा बताने वाली ये पार्टियां हद की हर उस सीमा को पार कर चुकी हैं जिसके अंदर रहना इनका कर्तव्य था| आज जब चुनाव सर पर है तो सारी पार्टियां अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए सारे हथकंडे अपनाना चाहती हैं ताकि आने वाले चुनाव में कुर्सियों पर अपना अधिकार जमा सके|
कुर्सी की लालच इन नेताओं को इतना अंधा कर चुकी है कि इन्हें संविधान का भी क़द्र नहीं है| सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों सरकार का हिस्सा हैं |लेकिन जहाँ ज़रूरत थी जनता के समस्याओं पर विचार करके उनका हल निकालने की वहीँ ये आपस में ही लड़ रहे हैं| आम जनता से जुड़े सवालों से इनका कोई लेना देना नहीं है,पूरी तरह भ्रष्ट हो चुके इस व्यवस्था का ताज़ा उदहारण बिहार विधानसभा हंगामा है| नेताओं कुछ तो शर्म करो! जनता भूख,लाचारी ,गरीबी मंहगाई से त्रस्त है और नेता स्वार्थ की राजनीति कर रहे हैं|यह इसी देश में हो सकता है| यह कैसी विडंबना है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाने वाला देश भारत में ही लोकतंत्र शर्मसार होता है| अब समय आ गया है,आम जनता को खुद अपनी ज़िम्मेदारी लेने की क्योंकि जिन नेताओं पर वो भरोसा कर रहे हैं उन्हें इनकी कोई चिंता नहीं है|लेकिन क्या ऐसा होगा इसपर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है|

Monday, July 19, 2010

जिंदगी की जंग में क्यों पीछे हैं लड़कियां?

आज के इस वैज्ञानिक युग में जहाँ हम खुद को चाँद पर देख रहे हैं वहीँ इस २१ वीं शताब्दी की कड़वी सच्चाई यह भी है कि हमारे देश की लडकियों के साथ दोहरा व्यवहार किया जाता है|आखिर हम किस युग में जी रहे हैं? आधुनिकता की चादर ओढ़े इस देश में आधुनिकता कम फूहड़ता ज्यादा दिखती है| किस आधुनिकता की दुहाई देते हैं हम जब देश की आधी आबादी इससे वंचित है?
परीक्षा में लड़कियों के सफल होने का प्रतिशत लड़कों से ज्यादा है यह सुनकर अच्छा लगता है,यह जानकर तो ओर भी अच्छा लगता है की पहले १० स्थानों में ज्यादा तर संख्या लड़कियों की है लेकिन हम यह नहीं समझ पाते कि यही लड़कियां आखिर जिंदगी की जंग में कहाँ पीछे रह जाती हैं ?खुद को विकसित देश की श्रेणी में देखने वाला यह देश अपने खुद की इस मानसिकता को नहीं बदल पाया है जहाँ लडकियों को जुर्म की जंजीरों में कैद रखा जाता है| यूँ तो हम २१ वीं शताब्दी में जी रहे हैं लेकिन लोगों की मानसिकता अभी भी मुगलकालीन विचारों पर आधारित है| आम भारतीय परिवारों में ज्यादातर की सोच यह रहती है की लडकियां दूसरे के घर के लिए ही बनी है| उनका काम पति ओर ससुराल वालों की सेवा करना मात्र है|इस कहानी का सबसे दुखद पहलु यह है कि लड़कियों ने खुद को भी इसी मानसिकता में ढाल लिया है| जिसका परिणाम हमारी आँखों के सामने है लडकियां खुद के अधिकार के लिए भी नहीं लड़ पाती| और इस तथाकथित आधुनिक समाज का शिकार बन जाती है|
इसके लिए दोषी सिर्फ माँ बाप ही नहीं हैं,इसके लिए दोषी वह व्यवस्था है जिसने माँ बाप को भी इस ढंग से सोचने को मजबूर किया है| ज़रूरत इस बात कि है हम अपनी मानसिकता बदलें ताकि समाज में लडकियां भी आगे बढ़ पाए| जब कभी भी लड़कियों को ऐसा माहौल मिला उसने अपने आप को साबित किया| तो क्या हम लड़कियों के लिए थोड़ी सी जगह नहीं दे सकते ? इस पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है|

Tuesday, July 13, 2010

मनुष्य के अस्तित्व पर खतरा

प्रकृति पर विजय पाने की मनुष्य की सदा से प्रवृत्ति रही है| इस महत्वाकांक्षा ने जहाँ एक तरफ मनुष्य को सफलता के शिखर पर पहुँचाया है वहीँ दूसरी तरफ अपनी इच्छाओं पर काबू न रख पाने की वजह से मनुष्य ही इस प्रकृति की सुंदरता का दोहन कर रहा हैं| हमें आश्चर्य होता है कि दुनिया का सर्वोत्तम कहा जाने वाला जीव मनुष्य अपनी बुद्धि पर घमंड कर जानवरों जैसा वर्ताव क्यों करने लगा?
इसका परिणाम आज हम अपनी आँखों से देख रहे है| पेड़ों के काटे जाने से जहाँ बाढ़ और सुखाड़ की स्थिति उत्पन्न हो गई है वहीँ कारखानों की चिमनियों से निकले धुंए और जहरीली गैसों से ग्लोबल वार्मिंग जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई है ,जो पृथ्वी को लील जाने को आतुर दिखाई दे रही है| और इसका जिम्मेदार मनुष्य भौतिकता की चकाचौंध में इतना अंधा हो चूका है कि उसे खुद अपना विनाश नज़र नहीं आ रहा है |
प्रकृति से सबसे ज्यादा छेड़छाड़ विकसित राष्ट्रों ने किया है लेकिन अब जबकि दुनिया के अस्तित्वा पर खतरा मंडरा रहा है तो वही लोग अपनी जिम्मेदारी से पीछे हट रहे हैं | जरूरत इस बात की है कि इंसानियत की रक्षा की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए पृथ्वी के अस्तित्व पर मंडरा रहे इस गंभीर खतरे का हल निकाला जाये ताकि मानव सभ्यता बची रहे |
करोड़ों रूपये खर्च कर हुए कोपनहेगन सम्मलेन से भी जो उम्मीद थी वह भी निरीह स्वार्थ के पैरों टेल कहीं दब कर रह गई| आज मनुष्य खुद से इतना दूर जा चूका है जहाँ इक्षाएं उसका पीछा नहीं छोडती| कहने वाले चाहे कुछ भी कहें लेकिन इतना तो तय है कि थोथी दलीलों से कभी समस्याएँ हल नहीं हो जाती अगर समस्या को हल करना है तो उसके लिए एक ठोस कार्ययोजना बनाकर उसपर अमल करने कि ज़रूरत है |

Tuesday, July 6, 2010

बंद किसके हित में ?

लोकतंत्र में जनता कि भलाई के लिए विपक्ष को बंद सहित विरोध का कोई भी रास्ता अपनाने का अधिकार है लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि वह अपनी सीमाओं के सभी दायरे को लाँघ कर पहले से ही महंगाई से तंग निरीह जनता के घावों पर मलहम लगाने के बजाये उसे और ताज़ा करे | जनता के हित में आयोजित बंद से आम गरीब लोगों को क्या फायदा हुआ ? उलटे उनकी तो मजदूरी भी मारी गई | इस बात कि चिंता क्या हमारे देश के राजनेताओं को है ?हम मानते हैं कि शासन सत्ता पर बैठे लोग जब आम लोगों कि जिंदगी में ज़हर घोलने का काम करती है तो हमें विरोध में आवाज़ उठानी ही चाहिए ,लेकिन हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि जिसके लिए हम आवाज़ उठा रहे हैं फायदा उसे हो वरना इसका कोई मतलब नहीं रह जायेगा |राजनितिक दलों को भी यह समझना होगा कि भलाई के नाम तोड़फोड़ और गुंडागर्दी दिखाने से समस्या का हल नहीं हो जायेगा बल्कि इससे तो और इजाफा होगा | पिछले ५ सालों में अगर कोई मुद्दा सबसे ऊपर है तो वह है महंगाई | इस मुद्दे पर न जाने कितनी बार संसद से सड़क तक हंगामा हुआ ? लेकिन अगर नतीजों की बात करें तो वह आज भी सिफ़र है | क्या कारण है कि महंगाई का भूत हमारा पीछा नहीं छोड़ रहा ? इतने हंगामे के बाद भी सरकार के कानों में अबतक जूँ क्यों नहीं रेंगी ? यह एक बड़ा सवाल है |
कल भी भारत बंद किया गया था | लेकिन अफ़सोस कि जिस जनता के आंसू पोंछने के नाम पर ये बंद आयोजित किया गया था वह सिर्फ एक राजनितिक नौटंकी बन कर रह गया | आखिर राजनीतिक दल आम जनता कि भावनाओं के साथ खिलवाड़ क्यों करते है ? इस महंगाई से सबसे ज्यादा परेशान तो वह जनता है जिसके समर्थन पर ये जनता कि तथाकथित हितैषी पार्टियां राज करती हैं | लेकिन इनकी कारगुजारियों से जब वही जनता भूखे मरने को विवश होती है तो ये लोग चुपचाप आँखे बंद कर तमाशा देखते हैं | आज हालत यह है गरीब से लेकर मध्यम वर्गीय परिवार के लोग अपने आप को असहाय पा रहे हैं | राजनितिक पार्टियां ब्लेम गेम का खेल खेल रही हैं और इन सबके बीच पिसती है आम जनता जिसे अपने वोट की कीमत भी नहीं पता |
बंद बुलाया तो जाता है आम जनता के नाम पर लेकिन इससे आम जनता ही अनभिज्ञ रहती है | वो आज भी इसे राजनितिक पार्टियों का काम समझते हैं | महंगाई ने आम जनता की जहाँ कमर तोड़ दी है वहीँ बंद का असर भी सबसे ज्यादा जनता पर ही पड़ता है | यह सच है की दोनों तरफ से जनता की ही मौत होती है | लेकिन फिर भी जब पानी सर के ऊपर से निकलने लगे तो आखिर लोगों के पास रास्ता क्या बचता है ?
आज इस देश की हालत यह है कि एक तरफ गरीब जनता के पैसों पर राजनेता राज करते हैं और दूसरी तरफ वह गरीब भूखे रहता है | ज़रूरत इस बात की है कि आम जनता को ध्यान में रखकर महंगाई सहित तमाम मुद्दों पर मंथन किया जाये लेकिन पता नहीं कब तक ये लोग जनता कि भलाई के नाम पर घडियाली आंसू बहाते रहेंगे ?

Friday, July 2, 2010

खून की कीमत ?

एक बार फिर सी आर पी एफ के ज़वान शहीद हुए| 3 महीने के अंतराल पर 150 जवान बिना किसी कुसूर के मारे गए|क्या नक्सली बताएँगे की निर्दोषों की हत्या कर ,बेगुनाहों का खून कर वे किस क्रांति को अंजाम देना चाहते हैं ? क्या समाज में असमानता निर्दोषों की हत्या कर समाप्त की जा सकती है ?आखिर किस समाजवादी व्यवस्था को लाना चाहते हैं ये लोग ? जिस मार्क्स और लेनिन को ये अपना आदर्श मानते हैं उन्होंने क्या कभी कहा की बेगुनाहों की हत्या करो ? आखिर नक्सली ये क्यों भूल जाते हैं की जिन जवानों को वो मार रहे हैं वह किसी किसान का बेटा है ,किसी मजदूर का बेटा है ,जो अपने और अपने परिवार के पेट के खातिर बन्दुक उठा कर देश के लिए लड़ रहा है |उन जवानों का क्या कसूर ?

यह तो मैं भी मानता हूँ की इस देश में असमानताएं हैं ,लाचारी है ,आमिर और गरीब के बिच खाई है लेकिन इस रास्ते से तो हम ये खाई और बढ़ा रहे हैं | भगत सिंह ,चंद्रशेखर आज़ाद ,महात्मा गाँधी ,नेल्सन मंडेला जैसे लोगों ने भी सबको समानता देने की बात कही थी |इनका भी सपना था भारत एक संप्रभु समाजवादी गणराज्य बने | लेकिन नक्सलियों के करतूतों से तो लोग समाजवाद के नाम से नफरत करने लगे हैं | सवाल पूंजीवाद –समाजवाद का भी नहीं है ,अब सवाल ये है की आखिर नक्सलियों का शिकार ये जवान कबतक होते रहेंगे ?

एक बात सरकार को साफ़ –साफ़ समझ लेना चाहिए की नक्सलियों से हथियारों के बल पर नहीं निबटा जा सकता |यह बात नक्सली बार बार साबित भी करते रहे हैं |इसलिए ज़रूरत इस बात की है उन कारखानों को बंद किया जाये जहाँ से ऐसे गंदे विचार पैदा होते हैं और उन बाज़ारों को भी बंद किया जाये जहाँ इसका व्यापार किया जाता है | गरीबी ,भुखमरी ,असमानता ,बेरोज़गारी ,भ्रषटाचार ,अशिक्षा वो चीजें हैं जो नक्सलियों को फलने फूलने का अवसर देते हैं | नक्सलियों को भी एक बात समझ लेनी चाहिए हतियारों के बल पर जुटाया गया समर्थन उस पेड़ की तरह होता है जो रेत के ढेर पर खड़ा हो और वह, हवा का एक झोंका भी नहीं सह सकता |इसलिए अगर वास्तव में व्यवस्था परिवर्तन चाहते हैं तो सबसे पहले विचारशील मनुष्यों के फ़ौज के ताकत की वो दीवार खड़ी करनी होगी जिसे कोई भी तानाशाही हुकूमत न गिरा सके, फिर समस्याएं तो अपने आप खत्म हो जायेगी |और यह हथियारों के बल पर तो कभी भी नहीं हो सकता, निर्दोषों का क़त्ल करके तो नहीं हो सकता | इसके लिए दृढ़संकल्पित युवाओं को आगे आना होगा जो किसी भी परिस्थिति से जूझने का माद्दा रखते हों | वरना पता नहीं हम कितने निर्दोषों की बलि चढाएंगे ?

Thursday, July 1, 2010

मरीज नहीं मर्ज़ का इलाज कीजिये

अन्याय और अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाने की मनुष्य की सदा से प्रवृत्ति रही है | अपने हक और हुकूक की लड़ाई तो हमें लड़नी ही चाहिए लेकिन क्या इसके लिए मानवता और इंसानियत का गला घोंटा जा सकता है ? इसपर विचार करने की ज़रूरत है |
पिछले ३ महीनों में सी आर पी एफ के १४९ निर्दोष जवानों को नक्सलियों ने मौत के घाट उतार दिया | जल ,जंगल और जमीन नहीं छिनने देंगे का नारा देने वाले नक्सली जिंदगी और ज़वान को छीनने पर क्यों तुले हुए हैं ? अगर अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाना इंसानियत है तो इसके नाम पर निर्दोषों की हत्या हैवानियत | इस हैवानियत की हद को पार करने की कोशिश एक ऐसा आतंक पैदा करेगा जिसके डर से मानव सभ्यता कभी उबर नहीं पाएगी | तो आखिर इसके मायने क्या हैं ?
बड़ा अफ़सोस है, लेकिन सच है कि किसानों पर अन्याय के विरुद्ध जो आंदोलन नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ था वह आज अपने उद्देश्य से भटक गया है | इसे अंजाम तक पहुँचाने कि जिम्मदारी उनकी थी जिनका विचारों से गहरा नाता था | जहाँ ज़रूरत थी एक स्वस्थ सामाजिक ,वैचारिक क्रांति कि वहाँ लोगों में घृणा और डर घोला जा रहा है | जिन पूंजीपतियों और पूंजीवाद के खिलाफ इन्होने अपना आंदोलन छेड रखा है क्या उनको बढ़ने से रोक पाए ?
आज़ादी के ६३ वसंत देख चुके भारत में जहाँ एक तरफ अमीर अमीर बनता जा रहा है तो गरीब गरीब | इन विषम परिस्थितियों में जब देश कि राजनितिक पार्टियां कुर्सी और सत्ता के लालच में जनता के उम्मीद और सपनों पर काली चादर डाल चुकी है तो एक मात्र विकल्प था सही विचारधारा से लैस कुछ लोगों की जो निःस्वार्थ भाव से लोगों की वैचारिक सोच को मजबूत करते, लेकिन अपने आप को विचारधारा से मजबूत होने का दावा करने वाले लोग ऐसे घिनोने हरकत कर रहे है जिससे लोग अपने आप को उस जगह पर खड़े पा रहे हैं जिसके आगे कुआँ है तो पीछे खाई |
व्यवस्था परिवर्तन कि ख्वाहिश आज़ादी आंदोलन में शामिल नेताओं ने भी रखी थी , लेकिन निर्दोषों का खून बहाकर नहीं |इसलिए अगर सच में व्यवस्था परिवर्तन करना है तो इसके लिए हिंसा का रास्ता छोडकर वैचारिक मानसिकता विकसित करने का आंदोलन छेडना होगा अन्यथा हमारे ज़वान यूँ ही मरते रहेंगे और हम उन्हें शहीद का दर्ज़ा देते रहेंगे | आजतक इसका समाधान सिर्फ इसलिए नहीं हो पाया क्योंकि हमने कभी इसकी जड़ तलाशने की कोशिश नहीं की | इसलिए यहाँ ज़रूरत मरीज के इलाज की नहीं मर्ज़ के इलाज की है | लेकिन पता नहीं यह बात हमारे देश के कर्णधारों को कब समझ में आएगी ?