भारतीय नवजागरणकालीन हिंदी कहानी की चर्चा करते हुए अनायास ही जिसपर सबकी निगाह टिकती है वे हैं प्रेमचंद| ३१ जुलाई जिनकी जयंती है| उन्होंने अपनी कलम का इस्तेमाल उन सदियों पुराने अंधविश्वासों और शोषण के खिलाफ किया था जों पूरे भारतीय समाज को जकडे हुई थी| उन्होंने अपने लेखों के जरिये जनवादी और मानवीय मूल्यों,व्यक्ति स्वतंत्रता और नारी मुक्ति की तस्वीर खींची| राजाराम मोहन राय,विद्यासागर,बंकिमचंद्र चटर्जी,तोल्स्तोय,गोर्की जैसे दुनिया के महान साहित्यकार और समाज सुधारकों की गहरी छाप उनपर थी जिन्होंने धार्मिक अंधविश्वासों के स्थान पर आधुनिक शिक्षा व धर्मनिरपेक्ष मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए संघर्ष किया था| प्रेमचंद ने कहा –“साहित्य का एकमात्र उद्देश्य और आदर्श सामाजिक प्रगति होना चाहिए”
आखिर प्रेमचंद जैसे साहित्यकार की प्रासंगिकता आज के समय में क्या है ? जब समाज के हर कोने घीसू और माधव दिखाई देते हैं तो प्रेमचंद की प्रासंगिकता समझ में आती है| जब लोग आज भी भाग्य और भगवान के भरोसे पूरी जिंदगी अन्याय और अत्याचार सहकर गुजार देते है तब प्रेमचंद की प्रासंगिकता दिखाई देती है|
मुंशी प्रेमचंद ने शिक्षा को सर्वसुलभ करने की बात कही थी लेकिन आज हम देख रहे हैं सरकारें ठीक इसका उल्टा कर रही हैं|शिक्षा खर्च जनता के ऊपर लादा जा रहा है और शिक्षा नीति को बंद कमरे में नौकरशाह तैयार कर रहे हैं|इसलिए प्रेमचंद ने कहा था “जब शिक्षा के गले में परतंत्रता की बेडियाँ पड़ गई तो उस शिक्षण संस्थान की गोद में पले हुए छात्र भी गुलाम मनोवृत्ति के मनुष्य हो तो कोई आश्चर्य नहीं”
प्रेमचंद अगर चाहते तो आराम से अपनी जिंदगी गुजार सकते थे लेकिन आम गरीब,बेबस और असहाय लोगों के प्रति उनके दिल में जों जगह थी उसकी वजह से ही उन्होंने उस आरामदायक जीवन का त्याग कर इस जीवन को अपनाया था| इसी के परिणामस्वरुप १९२० में असहयोग आंदोलन के समय उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और १९२४ में अलवर के राजा के सचिव पद का निमंत्रण ठुकरा दिया|यही नहीं उन्होंने अंग्रेजों द्वारा दी गई राय साहब के ख़िताब को भी लौटा दिया|इसलिए ही वे उपेक्षित,उत्पीडित व दबी कुचली मानवता के प्रति अपनी कलम की प्रतिबद्धता को जीवन के अंतिम क्षणों तक बनाये रख सके|
आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र – नैतिक,सांस्कृतिक,शैक्षणिक,साहित्यिक,आर्थिक,राजनितिक हर दिशा में अधोपतन तीव्रतर हो रहा है| मानवीय मूल्यबोध,सांप्रदायिक सौहाद्र,इंसानी रिश्ते निरर्थक साबित हो रहे हैं| अश्लील सिनेमा साहित्य युवक युवतियों के चरित्र को गिरा रहे हैं| आज़ादी के इतने सालों बाद भी मजदूरों और किसानों की हालत में सुधार की बात तो दूर और बदतर हो गई है| सेज जैसी स्कीमों से देश भर में लाखों एकड़ उर्वर ज़मीन से हजारों किसानो को जबरन हटा दिया गया| आज हमें इन बुराइयों के खिलाफ सांस्कृतिक और राजनैतिक आंदोलन को मजबूत करने के लिए प्रेमचंद की तरह ही निःस्वार्थ त्याग और बलिदान की भावना से संघर्ष साहस और विज्ञानसम्मत चिंतन व इंसानियत के झंडे को हाथ में लेकर हर दरवाजे पर दस्तक देनी होगी| यही प्रेमचंद को सच्ची श्रद्धांजलि होगी| और उन्हें याद करने का सही तात्पर्य भी यही है|