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Tuesday, March 27, 2012

मानवता की हत्या के साथ-साथ रिश्तों का भी क़त्ल!

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ये रिश्तों का क़त्ल  है!

“वो लोग जबरदस्ती गाडी में बैठ गए। उसके बाद सब सामान माँगने लगे और फिर आंटी(Aunty) को बगल की गली में जाने कहा फिर मार दिया” यह बयान है चार साल के उस बच्चे का जिसकी आँखों के सामने उसकी आंटी का पहले सामूहिक बलात्कार किया गया, फिर हत्या कर दी गयी। खौफ और डर से परेशान चेहरे से निकली उस बच्चे की आवाज जब कानों तक पहुँचती है तो अनायास ही मन करुणा और व्यवस्था के प्रति आक्रोश से भर जाता है। प्रशासनिक लापरवाही का इससे बड़ा उदहारण और क्या होगा कि इस घटना के बारह घंटे बीत जाने के बाद भी एफ आई आर दर्ज नहीं हुई थी। प्रशासन के आला अधिकारी घटनास्थल कभी जमुई जिले के अंतर्गत बता रहे थे तो कभी लखीसराय जिले के अंतर्गत। हत्या, लूट और बलात्कार इनमें से कोई एक घटना अगर किसी के साथ हो जाए  तो पहाड़ टूटने के सामान होता है लेकिन यहाँ तो तीनों घटना एक ही परिवार के साथ घटी थी। मजबूर और लाचार उस व्यक्ति की हालत क्या होगी इसकी सिर्फ़ कल्पना की जा सकती है। लेकिन सवाल है लड़ा किससे जाए  झूठी सरकार से, बेशर्म प्रशासन से, समाजहित का चोला पहने मीडिया से या रूठी किस्मत से?  
बीते रविवार की देर रात जब झारखण्ड का परिवार राजगीर के ऐतिहासिक स्थलों को देखकर वापस लौट रहा था तो उसने इस बात की कल्पना भी नहीं की होगी कि इस ऐतिहासिक सुंदरता का बखान वह अपने परिजनों से नहीं कर पाएँगे। उनकी गलती बस इतनी थी कि नीतीश सरकार के परिवर्तित बिहार की जो झूठी पहचान पूरे देश में बनाई गयी है, उसकी सच्चाई से वाकिफ़ नहीं थे या कहें कि उसके झाँसे में आ गए था। बिहार के जमुई जिला अंतर्गत जमुई-लखीसराय सड़क पर कुछ गुंडों ने जबरदस्ती कार को रोककर झारखण्ड के एक व्यवसायी परिवार के साथ लूटपाट की और परिवार की महिला के साथ सामूहिक बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी गयी। बेबस, लाचार परिवारवाले गनपॉइंट पर खड़े होकर इसे देखने को विवश थे। तो कानून व्यवस्था में सुधार का दावा करने वाली पुलिस सोयी हुई थी। स्थिति की भयावहता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सुबह जब पुलिस का एक अधिकारी अस्पताल पहुँचा तो उसने एफआईआर रिपोर्ट भी नहीं पढ़ी थी। और घटना के चौबीस घंटे से ज्यादा बीत जाने के बाद भी बलात्कार की आधिकारिक पुष्टि नहीं हो पायी थी। कई सवाल मुँहबाए खड़ी है, जवाब देनेवाला कोई नहीं। भुगते वो जिसके सर पर ग़मों का पहाड़ टूटा। आज मानवता हारी नहीं, मर गयी।
स्तब्ध करने वाली यह घटना सीधे-सीधे राज्य सरकार की विफलता और उसके झूठे दावों की पोल खोलती है। अफ़सोस यह भी है राजनीति की जो पूँजी हमारे पास थी वह पूँजी की राजनीति में तब्द्दील हो चुकी है। आम लोग आखिर भरोसा किसपर करें? लोकतंत्र अगर मजबूर तंत्र में तब्दील हो जाए तो अन्याय और अत्याचार के खिलाफ़ आवाज कौन उठाएगा? जो घटना हमारी संवेदनशीलता को झकझोरती हैं और संवेदनहीनता उजागर करती हैं उसपर समाज के हित के लिए लड़नेवाली मीडिया की चुप्पी आश्चर्यजनक है।
मानवता, मनुष्यता, और व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश से भर देने वाली इस घटना की तपिश न तो प्रशासनिक तंत्र महसूस कर रहा है और न ही लोग। मानवीय संवेदना और इंसानी रिश्ते को झकझोर कर रख देने वाली इस घटना के दर्द को महसूस कर रहा हर व्यक्ति आज शर्मिंदा है। सवाल यह भी है कि जमुई जैसी घटना किसी मंत्री, विधायक, सांसद या अफसर के रिश्तेदारों के साथ क्यों नहीं घटती? क्यों बार-बार वही आम इसका शिकार होता है? मुख्यमंत्री घटना के दूसरे दिन तक रिपोर्ट मंगा रहे हैं तो दूसरी तरफ कार्रवाई का भरोसा दिया जा रहा है। लेकिन जिस भरोसे का क़त्ल राज्य सरकार और उसकी पुलिस ने किया उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? अपराध को रोका नहीं जा सकता लेकिन अपराधी बेख़ौफ़ क्यों हैं? इसका जवाब कौन देगा? और सबसे बड़ा सवाल क्या पीड़ितों को इंसाफ मिलेगा? शायद ये पूछना ही बेवकूफी है।

इस  कथित हत्याकांड में एक नया मोड़ आ गया है। कहा जा रहा है कि महिला के पति ने ही एक साजिश के तहत हत्या को अंजाम दिया। इसके लिए उसने बकायदा अपराधियों को सुपारी दी थी। चचेरी साली से अवैध सम्बन्ध को हत्या का कारण बताया गया है। उक्त जानकारी लखीसराय की एसपी ने प्रेस कांफ्रेंस में दी हैं। जाँच अभी जारी है। हालाँकि लोग इसे घटना की लीपापोती बता रहे हैं। सबसे पहले ऐसा आरोप मृत महिला के भाई ने लगाया था। इस सम्बन्ध में मृतक के पति समेत तीन लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है। महिला का नाम सुमन है। (तारीख -31/03/12)  
गिरिजेश कुमार

Friday, March 23, 2012

अधूरा है देश के नायकों का सपना!

किसी भी देश की पहचान इस बात से होती है कि वह अपने नायकों को किस तरह से याद करता है भारत ही नहीं बल्कि विश्व इतिहास में देश के लिए त्याग और बलिदान के प्रतीक शहीद-ए-आजम भगत सिंह किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं। अंग्रेजों के साम्राज्य विस्तार की नीतियों और पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ भगत सिंह एक मजबूत चट्टान के रूप में खड़े हुए थे। भारतीय इतिहास  में 23 मार्च 1931 का दिन बड़े ही श्रद्धा और आदर के साथ याद किया जाता है। यही वह दिन था जब दुनिया ने देखा कि हिन्दुस्तानी देश के लिए किस तरह से अपना सबकुछ कुर्बान कर देते हैं। लेकिन क्या इस कुर्बानी को हम सहेज कर रख पाए हैं? हर साल शहीदी दिवस के दिन फूल मालाएँ चढाकर औपचारिकताएं पूरी करते वक्त यही वो सवाल है जो हमें सोचने को मजबूर करता है। इससे भी बड़ा सवाल ये है कि आखिर शहीदों की शहादत अपने ही देश में वन्दनीय क्यों है?   
28 सितम्बर 1907 को पंजाब के लायलपुर में जन्मे भगत सिंह का पूरा परिवार ही  आजादी आंदोलन के संघर्षों में सक्रिय था। भगत सिंह के अंदर देशभक्ति की भावना इसी पारिवारिक माहौल का ही नतीजा थी। लेकिन अफ़सोस कि जिस व्यक्ति के नाम लेते ही हजारों लोगों की आँखें नाम हो जाती हैं,  उनके क्रान्तिकारी विचारों से प्रभावित होकर लाखों लोग सड़कों पर अन्याय और अत्याचार के खिलाफ उतर आते हैं उन्हें भुलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई है  आज जिन विचारों की देश को सबसे ज्यादा ज़रूरत थी उन्ही विचारों को जड़ से मिटाने की कोशिशें हो रही हैंवर्तमान में जबकि देश में आर्थिक असमानता दिन ब दिन बढती जा रही है, घोटाले, भ्रष्टाचार और लूट में पूरा देश लिप्त है, आपसी भेदभाव पूरे समाज को पीछे धकेल रहा है,  आम लोग चाहकर भी विरोध में आवाजें नहीं उठा पाते, लोग असंगठित होकर लड़ तो रहे हैं लेकिन उनकी आवाज़ कहीं दब कर रह जाती है ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भगत सिंह और उनके साथियों की क्रान्तिकारी  विचारधारा एक नई ऊर्जा प्रदान करती है।  अन्याय और अत्याचार के खिलाफ मजबूत विचारों से लैस होकर जहाँ ज़रूरत थी एक संगठित संघर्ष की वहीँ समाज में लोग हताशा और निराशा की ज़िन्दगी जी रहे हैं। अवसाद से ग्रसित होकर लोग आत्महत्या जैसे आत्मघाती कदम भी उठा रहे हैं, जिसका खामियाजा पूरा समाज भुगत रहा है। भगत सिंह के बहाने सामाजिक व्यवस्था पर सवाल इसलिए क्योंकि जिन मुश्किल परिस्थितियों में भगत सिंह और उनके साथियों ने अपनी जीवटता प्रदर्शित की वह हालात से टूटते हुए इंसानों  को रास्ता दिखाने के लिए काफी था। लेकिन उनके वीरता की चर्चा  सिलेबसों में तो नहीं ही दिखती, उलटे उनके विचारों को फैलने से रोकने के लिए तमाम षड्यंत्र रचे जाते हैं। देश के महापुरुषों की इस वन्दनीय स्थिति से हमें शर्मिंदगी महसूस होती है।  भगत सिंह जिस साम्राज्यवादी व्यवस्था के खिलाफ लड़ते रहे आज हमारी व्यवस्था उसी साम्राज्यवाद की पिछलग्गू बन गयी है
भगत सिंह के विचारधारा रूपी सच को छुपाने की कोशिश की जा रही है। आज आज़ादी के इतने सालों बाद भी  उनके विचारोंं की प्रासंगिकता कायम है समाज और देश के विकास की गहरी समझ और
कार्ययोजना उनके अंदर विकसित थी। लेकिन  उनकी जीवनी दुर्लभ दस्तावेज़ का रूप ले चुकी है जिसका जिम्मेदार शासन तंत्र है। कहीं न कहीं शासकों को इस बात का भय है कि अगर भगत सिंह की विचारधारा से प्रभावित होकर लोग जागरूक होकर इस भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ एकत्रित हो गए तो फिर उस क्रांति को रोकना किसी भी सरकार के लिए संभव नही होगा। हालाँकि भगत सिंह को याद करने की सार्थकता तभी है जब हम उनके विचारों को अमल में लायें और भारत को एक समाजवादी गणतंत्र बनाने की पहल करें। क्या अपनों तक सीमित समाज देश रत्न के प्रति अपने रवैये को बदलेगा?
गिरिजेश कुमार

Thursday, March 8, 2012

अपनी पारंपरिकता खोती होली!

अपनी पारंपरिक सुंदरता और खुशियों के मिश्रण का विहंगम संगम, होली आज बदरंग हो चुकी है। अगर कुछ बचा है तो वह है परम्पराओं के नाम पर रिवाजों को ढोने की मज़बूरी और धार्मिक आस्था, जिसे मानव समाज छोड़ नहीं सकता। एक वह समय होता था, जब होली की खुमारी फागुन के पूरे महीने रहती थी। फाग गाने से लेकर एक दूसरे को अबीर गुलाल लगाने की औपचारिकता तो अभी भी है लेकिन वो चीजें नहीं दिखती जब होली के सामाजिक मायने होते थे। होली का मतलब पुरानी दुश्मनी को भुलाकर एक नये रिश्ते की शुरुआत होती थी। मुझे अभी भी याद है गाँव की गलियों में हुल्लड़ मचाती युवकों की टोली और रंग से बचने के लिए भागते लोग। उस समय मैं बच्चों की श्रेणी में आता था जिसकी अलग टोली होती थी। गाँव के बुजुर्गों को चिढ़ाने से लेकर गाली सुनने का एक अलग ही अनुभव होता था। होली सिर्फ़ होली के दिन ही नहीं खेली जाती थी उसके लगभग एक सप्ताह पहले और एक सप्ताह बाद तक होली खेली जाती थी। परन्तु आज अपनों तक सीमित सामाजिक अवधारणा और एकल परिवार ने सब गुड़ गोबर कर दिया है। अपार्टमेंटल संस्कृति में लिप्त पूरा समाज अपने मूल को खोकर सिर्फ़ दिखावों तक सीमित रह गया है। शहरी संस्कृति भले ही विकास और समृद्धि की परिचायक हो लेकिन जो चीज़ हमें जड़ से अलग करती है वह है अनजानापन। नरमुंडों के बीच दिखावटी अपनापन तो है लेकिंन इंसानी रिश्ते नहीं दिखते। सब एक दूसरे की तरक्की और अमनचैन के दुश्मन बने हुए हैं। होली के बहाने मानवीय संवेदनाओं पर सवाल इसलिए क्योंकि मनुष्य उस सामाजिक समरसताओं का प्रतिनिधित्व करता है, जिसका उदाहरण दुनिया के दूसरे जीवों में नहीं मिलता।
आज होली इलेक्ट्रोनिक ग्रीटिंग कार्ड्स और वर्चुअल दुनिया तक सीमित होकर रह गयी है। पहले घर से दूर रहने वाले लोग होली के अवसर पर इकठ्ठा होते थे। इसकी तैयारी पहले से ही होती थी। संयुक्त परिवार का कांसेप्ट था। आज अगर कोई चीज़ कचोटती है तो वह यही है। मेरे मोबाईल पर सुबह से कई मेसेजेज आ चुके हैं। यही हाल फेसबुक पर और दूसरे सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर है। लेकिन सवाल है अपनी वास्तविक सुंदरता और अपनेपन को खोकर जिस होली को हम मना रहे हैं उसके मायने क्या हैं?
आज लोग घरों से बाहर निकलने से डरते हैं। हर तरफ़ एक आशंका, डर और अनहोनी की चिंता सताए रहती है। न जाने किस दरवाजे से अकस्मात कुछ ऐसा हो जाए जिसकी कल्पना भी नहीं की हो। शक के बढते दायरे और विश्वास की कमी इतनी घरी पैठ बना चुकी है कि अगर कोई लड़की इस सामाजिक तानेबाने को तोड़कर सड़कों पर मस्ती में झूमते दिख गई तो ये तथाकथित आधुनिक समाज संस्कृति का ताना देने लगेगा। घटिया मानसिकता के बढते प्रभाव के बीच हम इस समाज को आधुनिक कैसे कहें, बड़ा सवाल यही है।
होली में पारंपरिक गीतों और अबीर गुलाल के बीच मस्ती में झूमते हुए लोग होते थे। आज उनका स्थान अश्लील और भौंडे गीतों ने ले लिया है। बेहूदे तरीके से कैमरे के सामने नाचते हुए युवक-युवतियां। आश्चर्य है कि इसी समाज को इसमें संस्कृति का कोई खतरा दिखाई नहीं देता। सभ्यता और संस्कृति कि दुहाई देकर समाज को तोड़ने का काम हो रहा है। हालाँकि सवाल यह भी है कि इस सामाजिक  विभत्सता को देखने लायक आँख और समझने लायक मन आज कितने लोगों में है?
दरअसल अपने कर्तव्य पथ से विमुख हमारा समाज इन्ही चीजों में खुश है। यहाँ न तो होली या किसी भी त्यौहार के मूल रूप को खोने की कोई बेचैनी दिखती है और न ही इस समाज को जरा भी अफ़सोस होता है। तो फिर जिम्मेदारी कौन लेगा?
गिरिजेश कुमार

Wednesday, March 7, 2012

फिर हिली धरती


क्या हम किसी बड़े हादसे का इंतजार कर रहे हैं?

मैं जिस बिल्डिंग में रहता हूँ वह कतई भूकंपरोधी नहीं है। ज़ाहिर है, अगर तेज झटके वाला  भूकम्प आया तो इन पंक्तियों का लेखक भी उस त्रासदी का शिकार हो सकता है। कल एक बार फिर देश के कई शहरों में भूकंप ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। देश के पाँच राज्यों में हुए चुनाव की चहल-पहल, राजनीतिक समीकरण, सरकार बनाने के लिए गठजोड़ और हार जीत के कयासों के बीच भले ही यह खबर कहीं दब गयी लेकिन इसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता। ठीक है कि यह भूकंप सिर्फ़ 4.9 तीव्रता का था जो आमतौर पर खतरनाक नहीं होता है। लेकिन प्राकृतिक आपदाओं के प्रति जागरूकता की कमी जो अफरातफरी पैदा करती है , और जो नुकसान की सबसे बड़ी वजह होती है, उसपर विमर्श कौन करेगा? आमतौर पर यहाँ लोग इस बात से अनभिग्य होते हैं कि जब भूकंप आए तो क्या करना चाहिए? हमारा प्रशासनिक तंत्र इतना मजबूत नहीं है कि ऐसी विपरीत स्थितियों में तत्काल राहत और बचाव का कार्य शुरू किया जा सके। यह स्थिति सिर्फ़ राजधानी पटना की है ऐसी बात नहीं है, देश में सभी जगहों के हालात कमोबेश एक से हैं। और यह बात पिछले 15 फरवरी को दिल्ली में हुए मॉक ड्रिल में खुलकर सामने आ चुकी है। तो क्या हम किसी बड़े हादसे का इन्तजार कर रहे हैं? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि बार-बार हिलती धरती और उससे होने वाले नुकसान का अंदाज़ा होते हुए भी इसपर कोई ठोस कार्ययोजना तथा उसे अमल में लाने के प्रयासों पर कोई चर्चा नहीं होती।  
पिछली बार जब 18 सितम्बर की शाम धरती हिली थी, जिसके झटके पूरे उत्तर भारत में महसूस किये गए थे, यह सवाल तब भी उठा था। यह सवाल तब भी उठा था जब 26 जनवरी 2001 को गुजरात भूकंप से तबाह हो गया था। और यह सवाल कल भी उठा, परन्तु स्थितियां न तो तब बदली और न ही आज। आनेवाले समय में इसे बदलने की उम्मीद कितनी है, पता नहीं! लेकिन इन सबके बीच सवाल यह भी है स्थितियां बदलती क्यों नहीं हैं?
हालाँकि सच यह भी है कि कर्तव्यविमुख सरकारें अपनी जिम्मेदारियों से भी मुँह मोड़ चुकी हैं। आम जनता अपनी जीवनशैली इस तरह से बना चुकी है, जहाँ इस तरफ़ सोचना उसके कार्यक्षेत्र के दायरे में नहीं आता। भूकंप जानलेवा नहीं होता, बल्कि कमजोर इमारतें भूकंप के कारण गिरकर जानलेवा बन जाती हैं। लेकिन विकास का पैमाना समझे जाने वाली ऊँची इमारतें अपने दायरे को फैलाकर पूरे शहर को जिस तरह से कंक्रीट के जंगल में तब्दील कर रही हैं, वह किसी दिन कब्रगाह में बदल जाए तो कोई आतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिन बड़ा सवाल यह भी है कि अगर विकास का रास्ता इन्ही कंक्रीट जंगलों से होकर गुजरता है तो उसमे भूकंपरोधी तकनीक का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाता? परन्तु आम आदमी के जान की फ़िक्र यहाँ किसे है? बिल्डर जानते हैं कि मरने के बाद हर ज़िन्दगी की कीमत तय होगी और लोग इसे भगवान का दंड समझकर चुप भी हो जायेंगे। फिर सबकुछ यूँ ही चलता रहेगा। अगर कुछ छूट जाएगा तो वह होगा न मिटने वाली यादें और न रुकने वाले आँसू। बार-बार हिलती धरती किसी बड़े खतरे का संकेत है या यह मात्र एक प्राकृतिक घटना, यह तो आनेवाला वक्त बातायेगा लेकिन इससे बचाव के पर्याप्त उपाय समय रहते नहीं किये गए तो आनेवाले समय में भूकंप से जानमाल के नुकसान का अंदाज़ा लगाना मुश्किल होगा। ज़ाहिर है खामियाजा पूरे मानव समाज को भुगतना होगा।
गिरिजेश कुमार