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Sunday, November 27, 2011

घर हो या बाहर, दुर्व्यवहार महिलाओं के साथ ही होता है

पुरुष वर्चस्ववादी सामाजिक अवधारणा में स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार कोई नई बात नहीं है लेकिन बदलते परिवेश में सीमित सोच और घटिया मानसिकता पूरी  व्यवस्था के लिए घातक है। सवाल है चंद लफंगे पुरे समाज को चुनौती देने का दुस्साहस कैसे कर लेते हैं? सवाल यह भी है कि यह सिलसिला आखिर कबतक चलता रहेगा? कल सरेराह बीच बाजार में एक युवती के साथ छेड़खानी की गई। अभी कुछ ही दिन पहले इंसानियत को शर्मसार कर इसी शहर में एक छात्रा के साथ उसके पिता के सामने बदतमीजी की गई थी और लोग मूकदर्शक बने रहे थे। इन सबके बीच बड़ा सवाल यह भी है क्या हमारे पूर्वजों के द्वारा विरासत में सौंपे गए संस्कार और संस्कृति प्रभावहीन हो गयी है?
दरअसल जब ऐसी घटनाएँ घटती हैं तो यही समाज संवेदनशील हो जाता है। चर्चाओं बहसों का एक नया दौर शुरू हो जाता है और कुछ समय के लिए ऐसा लगता है कि एक ठोस हल इस बार ज़रूर निकलेगा लेकिन स्थिति बदलती नहीं है। सदियों से पीछे धकेली गयी स्त्री समाज को अपनी आबरू बचाने के लिए पुरुषों का सहारा लेना पड़ता है। आधुनिकता की चादर ओढ़े इस समाज में आधुनिकता कम फूहडता ज्यादा दिखती है। लेकिन क्या हमारी संवेदना मर चुकी है। हम यह क्यों भूल जाते हैं कि वह लड़की हममे से ही किसी की बहन, किसी की बेटी है?
एक और बात जो ऐसे मामलों में नजर आती है वह यह कि ज्यादातर बदतमीज रसूख वाले घर से सम्बन्ध रखते हैं। पैसे और पॉवर का धौंस दिखाकर सबकुछ मैनेज कर लेते हैं। यानी दोष इस व्यवस्था में भी है जहां अपराध करने वाले जानते हैं कि ज्यादा से ज्यादा क्या हो सकता है? ऐसे में वह लड़की क्या करे या सताई गयी लड़की के परिवार वाले क्या करे? इस सवाल का जवाब कोई देना नहीं चाहता।
दूसरी तरफ़ खुलेपन के नाम पर पुरे समाज में जिस तरह से अश्लीलता फैलाई जा रही है वह भी ऐसी घटनाओं के लिए जिम्मेदार है। हमारी कानून व्यवस्था और प्रशासनिक अमला इतना सुस्त है कि पहले तो अपराधी पकड़ में नहीं आते और पकड़ में आ  भी गए तो किसी को उसके किये की सजा नहीं मिलती। नतीजा बेशर्मी की हद को पारकर सरेआम ये लफंगई करते हैं।
स्त्री देह को उपभोग की वस्तु समझने वाली हमारी सामाजिक संरचना धीरे-धीरे सभ्यता का प्रकाश खोकर इतनी मलीन हो चुकी है कि उसे अच्छे बुरे का भी ख्याल नहीं रहा। अपनों तक ही सीमित सोच हमें हर लड़की को नीची निगाह से देखने को विवश करता है। इस सोच को भी बदलना ज़रुरी है। हमारे तथाकथित विकसित समाज की कड़वी  सच्चाई यह भी है कि घर हो या बाहर, दुर्व्यवहार महिलाओं के साथ ही होता है। दहेज के लिए हत्या और प्रताड़ित करने कि घटनाओं में इजाफा इस बात के सबूत हैं।    
कहते हैं बच्चे की पहली पाठशाला उसका घर होता है। तो आखिर उनकी परवरिश में कहां कमी रह जाती है कि सड़कों पर खुलेआम बदतमीजी करने से ये बाज नहीं आते। उनके माँ बाप को भी इस दिशा में सोचना चाहिए। एक स्वस्थ, सुन्दर और भयमुक्त समाज बनाने की ज़िम्मेदारी हम सबकी है। इसमें ऐसी चीजों के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। यह सच है कि घर के चारों ओर अगर कचड़ा फैला हुआ हो तो हम अपने घर को दुर्गन्धमुक्त नहीं रख सकते। और चुपचाप बैठे रहना भी समाधान नहीं है। साथ ही प्रशासन को भी दोषियों को सजा दिलाने में महती भूमिका अदा करने की ज़रूरत है।
गिरिजेश कुमार

  

Friday, November 25, 2011

थप्पड़ की गूंज तो सुनाई दे रही है, लेकिन निहितार्थों पर चर्चा नहीं हो रही


व्यवस्थाओं से निराश होकर या वर्तमान हालात से तंग आकर, कारण चाहे कुछ भी हो, थप्पड़ चूँकि देश को चलाने की तथाकथित ज़िम्मेदारी संभाले सरकार के मंत्री को पड़ी थी तो उसकी गूंज तो सुनाई पड़नी ही थी। लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि इस थप्पड़ की सिर्फ़ गूंज ही सुनाई दे रही है इसके निहितार्थों पर चर्चा नहीं की जा रही। शायद करना भी नहीं चाहते। लेकिन सवाल यह है जब भी कोई घटना हमारे स्वभाव के विपरीत घटित होती हैं तो बजाये उसकी जड़ तलाशने के हम निजी निष्कर्ष पर पहुंच कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री क्यों समझ लेते हैं?  एक बात हमें साफ़ तौर पर समझ लेनी चाहिए कि शरद पवार को थप्पड़ महज प्रचार पाने का हथकण्डा नहीं था। मंहगाई, भ्रष्टाचार और अघोषित तानाशाही के खिलाफ जो चिंगारी आम जनमानस रूपी राख में दबी हुई है उसे भड़काने की नापाक कोशिश एक ऐसे  शोले का रूप ले लेगी जिसे दबाना किसी भी शासक वर्ग के लिए आसान न होगा। इसीलिए जब घोर साम्राज्यवादी अमेरिका के राष्ट्रपति पर मुंतज़र अल ज़ैदी ने जूता फेंका था तो उसे वैश्विक समर्थन मिला था। और इसीलिए जब हरविंदर सिंह जैसा युवक आवेश में किसी मंत्री को थप्पड़ मारता है तो असभ्य होते हुए भी हम सिर्फ़ उसे दोषी नहीं ठहरा सकते।
माना कि एक सभ्य लोकतान्त्रिक समाज में जनता के प्रतिनधि को खुलेआम थप्पड़ मारना कतई जायज़ नहीं है लेकिन जो परिस्थितियां और जो हालात इस देश के सामने इन्ही भ्रष्ट नेताओं ने खड़े किये हैं उसे आखिर बर्दाश्त कब तक किया जा सकता है? हर चीज़ की एक सीमा होती है लेकिन हम यह क्यों भूल जाते हैं सीमा की भी एक सीमा होती है, जिसे लाँघने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए। हालाँकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि लोकतान्त्रिक समाज में ऐसी प्रवृत्तियाँ विकसित होंगी तो किसी भी लोकतान्त्रिक संस्था का काम करना मुश्किल हो जाएगा लेकिन ऐसी प्रवृत्तियाँ विकसित न हों इसके प्रयास की ज़िम्मेदारी कौन लेगा? निहायत ही इसकी ज़िम्मेदारी उन्ही नेताओं को लेनी होगी जो देश चलाते हैं और आखिरकार गुस्सा भी उन्ही के खिलाफ है।
दरअसल आम जनता किसी फैसले पर तब पहुँचती है जब उसकी आशाओं, आकाँक्षाओं और भावनाओं के साथ खिलवाड़ होता है। आज भले ही हम इस घटना की जितनी भी निंदा कर लें लेकिन हमें चर्चा लोगों की उन मनोदशाओं पर भी करनी चाहिए जो उसे आपा खोने पर विवश करती है। इसे सिर्फ़ एक घटना मान लेना भी गलत होगा क्योंकि थप्पड़ मारना हममें से किसी का भी शौक नहीं होता। यह सच है कि हमें अपना विरोध दर्ज कराने के लिए लोकतान्त्रिक तरीकों का इस्तेमाल करना चाहिए लेकिन धरना, प्रदर्शन और जुलुस जैसे विरोध के शुद्ध  लोकतान्त्रिक तरीकों पर पुलिसिया ज़ुल्म इन्ही नेताओं की शह पर होता है फिर अव्यवस्थाओं के भंवर में फँसा आम आदमी क्या करे? फिर हम यह भी भूल नहीं सकते कि राहुल गाँधी को काले झंडे दिखा रहे युवकों को लतियाने में मंत्री भी शामिल थे। फिर उन युवकों से हम संयम की उम्मीद क्यों करते हैं?
इन सबके बीच विचारणीय यह भी है कि राजनीति पर जबतक स्वार्थनीति हावी रहेगा ऐसी घटनाएँ रोकी नहीं जा सकती। इसलिए निजीहित को छोड़कर नेताओं को जनहित की तरफ़ भी ध्यान देना चाहिए। अन्यथा यह कहना गलत न होगा कि शरद पवार को थप्पड़ सिर्फ़ एक बानगी भर है आगे लंबी कहानी है।
गिरिजेश कुमार


Wednesday, November 23, 2011

क्यों बिखर रहा अन्ना का आंदोलन?

अन्ना का आंदोलन तो टाँय-टाँय फिस्स हो गया न? कंप्यूटर पर कुछ ज़रुरी काम करने के दौरान एक पुराने मित्र का फोन पर यही पहला सवाल था। कई दिनों के बाद अचानक आए फोन पर इस सवाल ने थोड़ी देर के लिए तो मुझे भी सकते में डाल दिया। फिर जवाब दिया अभी अधीर  होने की ज़रूरत शायद नहीं है क्योंकि जिस कानून की माँग को लेकर इस आंदोलन की शुरुआत हुई थी उसके लिए संसद के शीतकालीन सत्र तक का इंतज़ार तो करना पड़ेगा। उसके पहले किसी निष्कर्ष पर पहुँचना जल्दबाजी कही जायेगी। बहरहाल जवाब में कुछ भी कहा जाए लेकिन यह सवाल उस आम आदमी की निराशा को भी प्रदर्शित करता है जिसके मन में भ्रष्टाचार के खात्मे की उम्मीद जगी थी। हालाँकि यह सच है कि बड़ी लड़ाई लड़ने में वक्त लगता है और इस दरम्यान हमें कई पड़ाव भी पार करने पड़ते हैं। लेकिन भ्रष्टाचार नामक जिस घुन की दवा माँगने अन्ना हजारे आए थे उसके अंजाम तक पहुँचने से पहले ही जिस तरह से अन्ना के सहयोगियों में वैचारिक मतभेद सामने आ रहा है उसने इस लड़ाई को पीछे ज़रूर धकेला है। सवाल है सदियों से दबे इस जनाक्रोश को सही दिशा देने में कामयाबी हासिल क्यों नहीं हो सकी? इस सवाल पर अन्ना और उनके सहयोगियों को भी आत्ममंथन की ज़रूरत है। दुनिया का इतिहास गवाह है कि समय-समय पर जनता का आक्रोश जनउभारों के रूप में सामने आता रहा है। शासक वर्ग के खिलाफ़ भ्रष्टाचार के बहाने उपजे इस आक्रोश को भी एक दिशा देने की ज़रूरत थी जो व्यवस्था परिवर्तन के लिए ज़मीन तैयार करती। लेकिन इस लड़ाई की  अगली कतार में शामिल लोग भी वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के उस कुटिल नीति का शिकार हो गए जिसमें व्यक्तिवाद प्रमुख है। अरविन्द केजरीवाल, किरण बेदी और खुद अन्ना को हमने अपने ऊपर लगे आरोपों के जवाब में आपा खोते हुए देखा है। अन्ना और उनके सहयोगियों का ज्यादातर वक्त अब यह सफाई देने में बीतता है कि हमारे बीच कोई मतभेद नहीं है। ऐसे में आम निरीह जनता के मन में ऐसे सवाल उठना जायज है। अन्ना टीम के प्रमुख सदस्य प्रशांत भूषण के कश्मीर पर दिए विवादास्पद बयान के बाद से उभरा मतभेद हर दिन एक नए रूप में सामने आ रहा है। इस मतभेद ने आम लोगों के मन में बनी साफ़ छवि को भी आघात पहुँचाया है। जिसे समय रहते समझने की ज़रूरत है।
दूसरी तरफ़ जब अन्ना हर वर्ग और धर्म के लोगों को कोर कमिटी में शामिल करने की बात करते हैं तो जाने अनजाने वह सदियों से कोढ़ की तरह समाज में जड़ें जमाये हुए उसी रूढ़िवादी मानसिकता को ही बढ़ावा देते हैं जिसमे जातिवाद प्रमुख हैं। किसी भी लड़ाई का आधार यह नहीं हो सकता कि उस टीम में शामिल लोग अलग-अलग धर्मों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे या नहीं। या फिर वह किस जाति से सम्बन्ध रखते हैं। व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई विचारों के आधार पर लड़ी जाती है।
इस तरह की लड़ाई पहली बार लड़ी जा रही है ऐसी बात नहीं है। 1974 का छात्र आंदोलन इससे कहीं ज्यादा बड़ा और व्यापक पैमाने पर हुआ था। उस वक्त भी मुद्दा भ्रष्टाचार था। लेकिन सम्पूर्ण क्रांति का जो नारा जयप्रकाश नारायण ने दिया उसे सही ढंग से परिभाषित नहीं किया जा सका था। जिसका हश्र आज हमारे सामने है। अन्ना के आंदोलन की तुलना जेपी के आन्दोलन से करना उचित नहीं है लेकिन इतिहास की गलतियों से सीख लेना भी ज़रुरी है। किसी भी आंदोलन को जनांदोलन सिर्फ़ इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि उसमे बड़े पैमाने पर लोग शामिल हैं। दरअसल उस भीड़ में वैचारिक रूप से मजबुत और राजनीतिक चालों की गहरी समझ रखनेवाले कितने लोग हैं यह समझना भी ज़रुरी है। वैचारिक रूप से लोगों को मजबूत बनाने की ज़िम्मेदारी उन लोगों पर होती है जो आंदोलन के अगली कतार में शामिल होते हैं लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पा रहा है। हालाँकि यह नहीं कहा जा सकता कि अन्ना का आंदोलन फेल हो गया लेकिन बिखर रहे इस आंदोलन की कड़ियों को जोड़ना ज़रुरी है। अन्यथा भ्रष्टाचार मुक्त समाज की कल्पना सिर्फ़ एक ख्वाब बनकर ही रह जायेगी।
गिरिजेश कुमार

Thursday, November 17, 2011

बिना सोर्स के आप सड़क पर चलते कीड़े हैं जिन्हें कोई भी राह चलता कुचल देता है



मेरे पड़ोसी शर्मा जी की पत्नी जिंदगी और मौत से जूझ रही है। दो दिन पहले उन्हें गंभीर हृदयाघात हुआ था। शर्मा जी के सामने एक तरफ़ अपनी पत्नी की ज़िन्दगी है तो दूसरी तरफ़ मँहगे ईलाज के लिए पैसे के बंदोबस्त की चुनौती। आँखों से आँसुओं की अविरल बह रही धारा किसी भी इंसान का दिल चीर कर रख देता है। अपनों का साथ तो है लेकिन विवशता उनकी भी है। डॉक्टरों ने एम्स रेफ़र किया है। इन सबके बीच चिंता सिर्फ़ पैसों की ही नहीं है,चिंता उन सोर्सों की भी है जिससे ईलाज समय पर शुरू हो सके। ये सोर्स आखिर कैसे मिले? मंत्रियों, विधायकों से मदद की गुहार ताकि ज़िंदगी बचायी जा सके। ग़म, मज़बूरी और लाचारी के ऐसे हालात में एक आदमी क्या करे?
यह कहानी उस शर्मा जी की है जो सरकार से ईमानदारी और मेहनत की कमाई का वेतन लेते हैं। लेकिन इन्ही जनता के टैक्सों पर पल रही सरकार के पास अस्पतालों में मँहगे ईलाज के लिए पर्याप्त सुविधाएँ नहीं हैं। और हैं भी तो वह चंद मुट्ठीभर सुविधासंपन लोगों की रखैल बनकर रह गई हैं। इसे विडंबना ही कहेंगे कि एक तरफ़ करोड़ों रूपये काले धन के रूप में विदेशी बैंकों की शोभा बढ़ा रहे हैं तो दूसरी तरफ किसी के पास एयर एम्बुलेंस के लिए पैसे नहीं है। यह स्थिति हर उस व्यक्ति की है जो मध्यमवर्गीय परिवार से आता है। यहां हर चीज़ के लिए सोर्स चाहिए। नौकरी के लिए सोर्स, इलाज के लिए सोर्स, सरकारी दफ्तरों में काम कराने के लिए सोर्स। बिना सोर्स के आप सड़क पर चलते कीड़े हैं जिन्हें कोई भी राह चलता कुचल देता है। क्षमता, बुद्धिमता, ज्ञान, अर्हता सब सेकेंडरी चीजें हो चुकी हैं। सवाल है आखिर ऐसी व्यवस्था किसने बनायीं जो इंसान के जीने के लायक ही नहीं है?
माना की चमचमाती सड़कें,उसपर फर्राटेदार दौड़ती मँहगी कारें और आसमान छूती इमारतें किसी भी देश के विकसित और समृद्ध होने की परिचायक हैं लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य और भोजन जैसी मूलभूत और बुनियादी ज़रूरतों का लाभ हर ज़रूरतमंद तक पहुँचे इसकी ज़िम्मेदारी भी सुनिश्चित होनी चाहिए। फिर ऐसे भारत निर्माण के दावों के दरअसल मायने क्या हैं जहाँ किसी की ज़िंदगी कागज़ के चंद नोटों के अभाव में नहीं बचाई जा सके? और पैसों का बंदोबस्त हो भी जाये तो सरकारी अस्पतालों में पर्याप्त सुविधाएँ नहीं मिलती क्योंकि वह किसी मंत्री, विधायक, सांसद या अफसर का रिश्तेदार नहीं है। निजी अस्पताल उसके ख्वाब से भी बाहर की चीज़ है।
विवशताओं और लाचारियों के ऐसे हालात में ही इंसान गलत कदम उठाने को मजबूर होता है। भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी की नींव भी कहीं न कहीं यहीं से जन्म लेती है। लेकिन बड़ा सवाल यही है कि पूरी तरह से पूँजीवादी सोच और उपभोक्तावादी संस्कृति में कैद यह समाज और समाजिक व्यवस्था क्या मुनाफे पर आधारित अपनी मानसिकता को बदलकर मनुष्य मात्र के हित की बात सोचेगा? अगर हाँ तो कब तक? अगर नहीं तो क्यों नहीं?
गिरिजेश कुमार