
एक अघोषित अवकाश(40 दिन) से लौटने के बाद कई सारे सवाल कौंध रहे हैं| इन
40 दिनों में मैंने जिंदगी के कई रूप देखे| हालाँकि इनमे खुशियाँ कम ही थी| इस
दौरान मौत से सामना भी हुआ और जिंदगी की जंग के लिए जिंदगी का ही विकृत रूप भी
दिखा| किस्मत शब्द का उपयोग मैं नहीं करूंगा, क्योंकि इंसान को इसने जड़शील बना
दिया है| दहशत से मची अफरातफरी भी दिखी तो जान बचाने के जुगत में लोगों को मरते भी
देखा| जी, ये सब महज एक महीने में हुआ, अगर पीछे पलटकर देखने की कोशिश करता हूँ तो
यकीन नहीं होता|
आखिर क्या हुआ इन 40 दिनों में? 1 सितम्बर 2011, ओवरब्रिज पर स्कूटी फिसली जिसे मैं ही चला रहा था|
परिणामस्वरूप मेरा पैर गंभीर रूप से जख्मी हो गया और मुंह में भी चोटें आई| हालांकि
मैं अब ठीक हूँ| 17 सितम्बर, मेरे दोस्त की माँ के गंभीर रूप से घायल होने की खबर
आई| 18 सितम्बर, शाम अचानक आये भूकंप के झटकों ने ऐसा दहशत फैलाया कि अफरातफरी में
कई की जान भी चली गई| आप कह सकते हैं सिर्फ 3 घटनाएँ हैं| जी, सिर्फ 3 ही हैं
लेकिन इसके निहितार्थ को समझें तो गिनती नहीं कर पाएंगे| क्योंकि ये वो घटनाएँ हैं
जिनसे मेरा सामना हुआ लेकिन ये रोज़ होती हैं| जगह बदल जाते हैं हालात नही|
यहाँ यह सब कहने की ज़रूरत इसलिए महसूस पड़ी कि क्योंकि मुख्य रूप से 17
और 18 सितम्बर की घटनाओं के बाद जो हालात उपजे और उनसे बाहर निकलने के प्रयास में
जो बाधाएं आई, इनसे जूझते हुए लोगों के जो चेहरे मेरे सामने आये उसने सीधे-सीधे
मेरे अंतर्मन को झकझोर कर रख दिया| एक आर्थिक रूप से कमजोर परिवार में अगर गंभीर
आपदाएं आ जाएँ तो उस स्थिति की सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है| दरअसल सवाल सिर्फ
दुर्घटनाओं या प्राकृतिक आपदाओं का नहीं है सवाल विकास और भारत निर्माण के दावों के बीच उपजे परिस्थितियों का है
जिनसे जूझना आम आदमी की नियति है| दुर्घटनाएं व्यक्ति के हालात को देखकर घटित नहीं
होती लेकिन आश्चर्य इस बात का है इस देश में करोड़ों रूपये बोरों में और बैगों में
भटकते रहते हैं,(हाल के दिनों में ऐसे कई मामले देश के विभिन्न हिस्सों में देखने
को मिले हैं) जिनकी बरामदगी के बाद उसका कोई दावेदार नही होता, लेकिन उसी पैसों से
अस्पतालों में ऐसी सुविधाएँ विकसित नहीं हो पायी जिससे आर्थिक रूप से कमजोर लोगों
को किसी अनहोनी के बाद परिजनों के रहमोकरम या किसी की दया पर आश्रित न होना पड़े|
ये हालात आज के हैं ऐसी बात नहीं है, या ऐसे हालात मेरे मित्र के साथ हैं ऐसा भी
नही है लेकिन जो महत्वपूर्ण सवाल है वह यह है कि जिन सरकारों के हाथों में इन सबकी
जिम्मेवारी है वो निजी स्वार्थों को तरजीह देने लगे और विरोधियों से बचाव ही जिनका प्रमुख लक्ष्य बन जाए तो ऐसे में आम जनता को मूलभूत
सुविधाएँ मयस्सर कैसे होंगी?

इन सबके बीच सुखद बात यही है कि उम्मीद के दीये कायम हैं और जबतक ये
जलते रहेंगे हम हालात के परिवर्तन की आकांक्षा तो रख ही सकते हैं| लेकिन समझना यह
भी पड़ेगा कि धैर्य की भी एक सीमा होती है|
गिरिजेश कुमार