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बहुदलीय प्रणाली पर आधारित वर्तमान भारतीय लोकतंत्र
जनहित की बात तो करता है लेकिन वह संविधान तक ही सीमित है। धरातल पर उसकी
वास्तविकता नहीं दिखती। वर्तमान चुनाव प्रणाली भी इसके लिए जिम्मेदार है। चुनाव
आयोग पैसों के लूट के खेल को रोकने में नाकाम है। नियम बनाना अलग बात है उसे अमल
में लाना अलग बात। खोखली हो चुकी इस व्यवस्था में सारा दोष चुनाव आयोग पर नहीं मढ़ा
जा सकता। नेता, पुलिस और अपराधियों के गठजोड़ को खत्म करना होगा। हमारा समाज
भयमुक्त नहीं है। यहाँ लोगों पर पुलिस का उतना ही खौफ है जितना अपराधियों का। वोट
के बदले नोट जैसी सामाजिक बुराई राजनीति को हाशिए पर ले जाने के लिए सबसे ज्यादा
जिम्मेदार है। हमारा सिस्टम इसे रोक पाने
में पूरी तरह असफल है। चुनाव की घोषणा होते ही ये तत्व सक्रीय हो जाते हैं। आम
भोली, निरीह और अनपढ़ जनता अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति इतनी जागरूक नहीं है कि
वह समाज के इन तथाकथित हितसोचकों के कुत्सित प्रयास को समझ सके। दरअसल, शासक वर्ग भी
यह नहीं चाहता कि लोग जागरूक हों, क्योंकि अगर जनता जागरूक हो गई तो इनकी कुर्सी
खतरे में पड़ जायेगी। वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था भी इसके लिए जिम्मेदार है। यहाँ
हर चीज़ पर बाजार हावी है, और इस समाज को उसकी कीमत चाहिए होती है, जिसकी अदायगी
ईमान, इज्ज़त और ज़मीर को बेचकर भी करनी पड़ती है। पार्टियों के चुनाव घोषणा पत्र में
बेहतर समाज बनाने के तमाम वादे और दावे तो किये जाते हैं लेकिन चुनाव खत्म होने के
बाद सत्ता के सुख में ये सारी चीज़ें खत्म हो जाती हैं। इन सबके बीच पिसना पड़ता है
उस आम जनता को जिसके लिए ये सारे प्रपंच रचे जाते हैं। परेशान होता है वह आम आदमी
जिसकी तनख्वाह तो नहीं बढ़ती लेकिन ज़रूरत की चीज़ों के दाम ज़रूर बढते रहते हैं। सवाल है समाधान क्या हो?
दरअसल, सत्ता का इस्तेमाल निजी फायदे के लिए हो और जनता के हित की तथाकथित राजनीतिक ढोंग भी रचा जाए, ये दोनों काम एक ही नाव पर सवार होकर अगर कोई पार्टी करना चाहती है तो समझना यह भी पड़ेगा कि आखिर इसके मायने क्या है? अगर राजनीति का मतलब सत्ता है तो जाहिर है कोई भी पार्टी इससे खुद को अलग कर नहीं रख पाएगी। लेकिन विकास की जिस लकीर को खींचने का दावा कर ये पार्टियाँ वोट माँगने जाती हैं उसमें आम आदमी फिट होता कहाँ है, यह भी बड़ा सवाल है?
यह विडंबना है कि आज़ादी के छह दशक बीत जाने के
बाद भी देश की जनता राजनीतिक रूप से पूरी तरह जागरूक नहीं हो पायी है। जिसका
नाजायज फायदा नेता उठाते हैं। इसलिए सवाल सिर्फ़ यही नहीं है कि स्थिति बदलेगी
कैसे, सवाल यह भी है कि उसे कैसे लोग बदलेंगे? इस व्यवस्था से फायदे में रह रहे
लोगों की तादाद भले ही ज्यादा न हो लेकिन इनके पास ताकत ज़रूर है। इसलिए ये लोग कभी
नहीं चाहेंगे कि ये हालात बदले। दूसरी तरफ़
पेट, परिवार और ज़िन्दगी की जद्दोजहद में पिसना मजदूरों की मज़बूरी है। इस मज़बूरी और
लाचारी के आलम में क्रांति की मशाल को जलाना मुश्किल ही नहीं कठिन भी है। हालाँकि
दुनिया का इतिहास इस बात की भी गवाही देता है कि शोले हमेशा राख में दबी
चिंगारियों से भडकते हैं। असंगठित होकर इस व्यवस्था के खिलाफ़ हममे से हर कोई
अपने-अपने तरीके से लड़ाई लड़ रहा है। ज़रूरत है उन्हें संगठित करने की। राजनीतिक
जागरूकता दूसरी सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है।
आम जनता के मन में बनी नेताओं की नकारात्मक छवि
उनमे घृणा का भाव उत्पन्न करता है। एक सभ्य लोकतान्त्रिक व्यवस्था में ऐसी स्थिति
को कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता। चुनाव भी औपचारिकताओं तक सीमित रह गया है। एक
वोट देश की दशा और दिशा तय करेगा यह मनोभाव न तो मतदाता के मन में होता है न नेता
के मन में। भयाक्रांत यह समाज आखिर सही निर्णय लेगा तो कैसे?
हालाँकि हमारी सबसे बड़ी खासियत यह रही है कि
हमने उम्मीद के दीये को कभी बुझने नहीं दिया। विपरीत परिस्थितियों में रास्ता
निकालने की कला हमें विरासत में मिली है लेकिन इससे पहले कि यह धैर्य अराजकता का
रूप ले ले हमें एक ठोस, गंभीर और सकारात्मक हल निकालने के प्रयास करने होंगे।
निश्चित ही यह ज़िम्मेदारी उनलोगों को लेनी पड़ेगी जिनका देश, समाज, और सियासत से
थोड़ा भी लगाव है।