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Thursday, December 30, 2010

आरुषि के हत्यारे अभी भी जिंदा है

क्या हमारा कानून अभी भी इतना परिपक्व नहीं हो पाया है कि वो दोषियों को सजा दे सके? क्या हमारी शासन व्यवस्था इतनी निकम्मी है कि वो एक निर्दोष लड़की के हत्यारों तक नहीं पहुँच सकती? क्या पैसा और पॉवर लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए बनाये नियमों से भी बढ़कर है? क्या एक निर्दोष परिवार के लिए आंसू और गम के समुन्दर में रहने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है? ये वो सवाल हैं जो आरुषि की हत्या होने पर भी उठे थे और आज जब उसके केस की फाइल बंद की जा चुकी है तब भी उठ रहे हैं| इन ढाई सालों में अगर कुछ हुआ तो सिर्फ इतना कि तलवार दम्पति की ज़िल्लत और बदनामी| इन जीवंत सवालों के जवाब न तो सरकार के पास है न ही सी बी आई के पास| एक और सवाल क्या देश की सबसे बड़ी एजेंसी निकम्मी हो चुकी है? क्योंकि उसके हत्यारे आज भी जिंदा हैं|

आरुषि हत्याकांड की फाइल बंद होना न सिर्फ सी बी आई की नाकामी है बल्कि सरकार की भी नाकामी है| रिहायशी इलाके में एक लड़की और उसके नौकर की हत्या होती है, ढाई साल तक ड्रामा चलता है और अचानक केस बंद करने की अर्जी दी जाती है| इस सनसनीखेज हत्याकांड को अचानक सबूतों का अभाव कहकर बंद कैसे किया जा सकता है? पुरे देश की निगाहें आज भी उन हत्यारों को ढूंढ रहीं हैं जिसने एक मासूम कलि को फूल बनने से पहले ही तोड़ दिया| लेकिन शायद अब वो कभी नहीं पकडे जायेंगे|

कातिलों को पकड़ने के लिए आज सी बी आई सबूत न होने की बात कह रही है लेकिन क्या सी बी आई इस सवाल का ज़वाब देगी कि जब सबूत ही नहीं थे तो फिर किस आधार पर आरुषि के पिता को गिरफ्तार किया गया था? क्या सी बी आई देश और समाज के सामने यह कहने की हिम्मत रखती है कि उसने इस केस को कभी गंभीरता से नहीं लिया| जांच के नाम पर सिर्फ खानापूरी की गई| एक स्वतंत्र संस्था जिसपर पुरे देश को विश्वास था वो आज सवलों के घेरे में आ गई है| असल में आरुषि हत्याकांड से जहाँ पूरा देश स्तब्ध था वहीँ पुलिस और सरकार ने हमेशा इसे नज़रंदाज़ किया| केस जब सी बी आई को सौंपा गया तो सी बी आई ने उलटे उसके पिता को ही दोषी करार दे दिया| चाहे कुछ भी हो इस सच को तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि सरकार, पुलिस और सी बी आई ने मिलकर एक मासूम और निर्दोष लड़की को इन्साफ से वंचित कर दिया| उसपर सी बी आई की बेशर्मी ये कि उसने दोष यू पी पुलिस पर डाल दिया|

पूंजीवादी सामाजिक व्यवस्था का एक और घिनौना चेहरा पुरे समाज के सामने स्पष्ट हो गया| हम अपने देश पर गर्व करें तो आखिर कैसे जहाँ मंत्री से लेकर संतरी तक पैसों से ख़रीदे जा सकते हैं| न्यायालय हो या सरकार यहाँ सब कुछ बिकाऊ है ऐसे ये कल्पना भी बेईमानी लगती है कि एक मध्यमवर्गीय परिवार, जिसकी जिंदगी दो वक्त की रोटी कमाने में ही बीत जाती है, उसे न्याय मिलेगा| इस कांड में शुरुआत से ही जो रेवैया अपनाया गया था उससे न्याय मिलने की उम्मीद तो खैर कभी नहीं थी लेकिन इसका अंत इतना दुखद होगा इसकी भी कल्पना शायद हमें नहीं थी| बहरहाल घुन की तरह सड़ चुके इस व्यवस्था की नाकामी तो बार-बार उजागर हो चुकी है लेकिन अब वक्त कुछ ठोस फैसले लेने का है वरना पता नहीं आरुषि जैसी कितनी लडकियां इसकी शिकार होंगी और हम क्रोध,दुःख और गुस्से को पी-पी कर घुटते रहेंगे?

Wednesday, December 29, 2010

दोहराया जा सकता है नंदीग्राम

पर्यावरण पर मंडरा रहे संभावित खतरे के बावजूद, जो मानव के अस्तित्व को ही लील जाने को आतुर है, सरकार के द्वारा ऐसे उद्योगों को बढ़ावा देना जो किसी एक नहीं जबकि पुरे समाज को नष्ट कर सकता है कहाँ तक उचित है? बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के मड़वन प्रखंड के चैनपुर-विशनपुर गांव में एक निजी कंपनी द्वारा खोले जा रहे एस्बसटस के कारखाने से जहाँ एक तरफ पर्यावरण को काफी नुकसान पहुँचने की संभावना है वहीँ दूसरी तरफ इसके लिए गरीब किसानों की खेतीयोग्य भूमि को बंजर बताकर जबरन कब्ज़ा कर लिया गया है, जो किसी भी लोकतान्त्रिक प्रदेश में जनता के हितों के साथ अन्याय है| उस ज़मीन के टुकड़े को वापस लाने के लिए जब किसानों ने विरोध प्रदर्शन किया तो प्रशासन ने जुल्म की इम्तहाँ ही पार कर दी| उन बेबस, लाचार और निहत्थे किसानों पर लाठियां और गोलियाँ चलायी गयी जिसमे कई किसान घायल हुए| उसके बाद भी विरोध में आवाजें बंद नहीं हुई आज भी किसान सतत लड़ाई लड़ रहे हैं|

सवाल उठता है जब उद्योग आम आदमी की जिंदगी ही नर्क बना दे तो ऐसे उद्योग क्या सिर्फ मुनाफा अर्जित करने के लिए खोले जा रहे हैं? जब इसे खोलने का प्रस्ताव पारित किया गया तो पर्यावरणीय कानून का ध्यान क्यों नहीं रखा गया? विदित हो कि केन्द्र सरकार ने १९८६ में पर्यावरण की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए पर्यावरण सुरक्षा कानून १९८६ बनाया था| आम किसानों के साथ अन्याय का इससे बड़ा उदहारण क्या होगा कि वो ज़मीन अग्रोइंडस्ट्री के नाम पर लिया गया और बाद में उसपर एस्बस्तास का कारखाना खोला जो रहा है|

एस्बस्तास के कारण कैंसर के अलावा पेट,आंत का ट्यूमर, गला, गुर्दा से सम्बंधित अनेक घातक बीमारियाँ होती हैं| ताज़ा आंकड़ों पर अगर गौर किया जाये तो दुनिया में १०७००० लोग प्रतिवर्ष इससे मरते हैं| दुनिया के ५० से अधिक देशों ने इसपर प्रतिबन्ध लगे है और बांकी देशों में भी आवाजें उठ रही हैं|

हम उद्योग के विरोधी नहीं हैं| लेकिन दुनिया के विकसित देशों में प्रतिबंधित एस्बस्तास का कारखाना लगाना पूरी तरह अनुचित है| फिर खेतीयोग्य ज़मीन पर कारखाना क्यों बने? क्या हमारे यहाँ बंजर ज़मीन का अभाव है? बंद कारखानों को अधिगृहित कर सरकार वहाँ कारखाना क्यों नहीं बनाती है? और फिर ५०० से १००० मीटर के दायरे में हजारों की आबादी, दर्ज़न भर प्राथमिक व मध्य विद्यालय, स्वास्थ्य उपकेन्द्र के बीच इस तरह की खतरनाक बीमारी फ़ैलाने वाले कारखाने का कोई औचित्य नहीं है|

अगर हम भूले न हों तो सिंगुर और नंदीग्राम में वहाँ की तथाकथित कम्युनिस्ट सरकार ने उपजाऊ ज़मीन पर ही उद्योग लगाने की अनुमति दी थी और वहाँ के किसानों ने “जान देंगे ज़मीन नहीं देंगे” की तर्ज़ पर लड़ाई लड़ी थी और क़ुरबानी दी थी परिणामस्वरुप सरकार को झुकना पड़ा था| इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि आनेवाले दिनों में बिहार सरकार को ऐसी ही चुनौतियों का सामना करना पड़े| इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि समय रहते जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए, एक प्रजातान्त्रिक सरकार अपने कर्तव्य को पूरा करे और तत्काल इस मामले हस्तक्षेप करे ताकि अधिकार की इस लड़ाई में बेवजह किसी की माँगें सुनी न हो और कोई महिला अपनी आबरू न खोये|

Friday, December 24, 2010

सरकार की दबंगई और मीडिया का न्यूज़ सेंस

एक बार फिर पुलिस और सरकार का बर्बर और असली चेहरा नज़र आया| सिपाही भर्ती में धांधली के खिलाफ सिपाही अभ्यर्थियों पर लाठी चार्ज सरकार और प्रशासन की दबंगई को दर्शाता है| २२ दिसम्बर को पटना में सिपाही भर्ती के अभ्यर्थी छात्रों पर लाठी चार्ज किया गया था जब वो भर्ती में धांधली के खिलाफ मुख्यमन्त्री से मिलने आये थे| नई सरकार के पहले जनता दरबार में छात्रों पर अत्याचार किया गया| आम लोगों का रक्षक प्रशासन इंसानियत को कैसे भूल सकता है? किसी भी लोकतान्त्रिक सरकार को इस बात की इज़ाज़त नहीं है कि वो अपनी मर्यादा भूल जाये| क्या सरकार और उसका तंत्र इस बात का ज़वाब देगा कि जब जनता दरबार लोगों की समस्याएँ सुनने के लिए ही लगाया गया था तो फिर उन अभ्यर्थियों की समस्या को क्यों नहीं सुनी गई? क्या मुख्यमंत्री श्री नितीश कुमार को इस बात की जानकारी नहीं थी कि सिपाही भर्ती में घपले से निराश अभ्यर्थी प्रदर्शन करने वाले हैं? अगर हाँ तो फिर शांति पूर्ण प्रदर्शन कर रहे छात्रों पर लाठी चार्ज करने की नौबत क्यों आई?

अभी सरकार बने १ महीना भी नहीं हुआ और उसका ये क्रूर और असली चेहरा समाज के सामने आ गया| जनता ने सुशासन, कानून व्यवस्था में सुधार और विकास के नाम पर वोट दिया था, और भारी बहुमत से जीत दिलाई थी| लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है कि वो तानाशाही रवैया अपनाएं| प्रजातंत्र में सबको अपनी बात रखने का अधिकार है, विरोध जताने का अधिकार है और उस सरकार का ये हक है कि जनता की समस्याओं को सुने| लेकिन लोकतान्त्रिक पद्धति से चुनी हुई सरकार इस कर्तव्य को कैसे भूल गई?

एक बात तो मुख्यमंत्री सहित तमाम प्रशासनिक अधिकारीयों को समझ लेनी चाहिए कि भले ही सत्ता की चाबी उनके पास है लेकिन जायज़ मांगो को लाठी के बल पर नहीं दबाया जा सकता| इतिहास चीख चीख कर इस बात की गवाही देता है| और अगर कोई शासक वर्ग ये सोचता है कि इनकी आवाज़ को हम यूँ ही लाठियों और गोलियों से दबा देंगे तो ये उनकी सबसे बड़ी भूल है|

हमें आश्चर्य होता है कि जब भी कहीं इस तरह की घटना घटती है तो दोष हमेशा विरोध करने वाले का दिया जाता है| लेकिन एक बड़ा सवाल यह उठता है जो व्यक्ति दूर दराज़ के गांवों से अपनी बात कहने यहाँ आया है वह अपना सब्र कबतक रख पायेगा? इंसान आखिर इंसान ही होता है| लेकिन इतनी सी बात हमारे तथाकथित कर्णधारों को समझ में नहीं आती| बहरहाल इतना तो तय है कि जनता को बरगला कर और धोखे में रखकर कोई सत्ता में ज्यादा दिनों तक नहीं रह सकता|एक और आश्चर्य की बात कि इस तरह से शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे छात्रों पर बर्बरता पूर्वक लाठी चार्ज किया गया जिसमे कई छात्र घायल हुए लेकिन अगले दिन समाज का हितैषी तथाकथित मीडिया की नज़रों से ये ख़बरें गायब रहीं| क्या बदलाव और विकास की आद में आम आदमी की कोई कीमत नहीं है? या हम इतने परिपक्व हो चुके हैं कि अब हमें ऐसी घटनाओं पर ध्यान ही नहीं देना चाहिए क्योंकि बिहार अब बदल चुका है? यह सोचने कि ज़रूरत है| क्या हम इसके लिए थोडा सा वक्त निकल सकते हैं?

Monday, December 20, 2010

साहित्य,युवा और बाज़ार

कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण होता है| साहित्य ने समाज को परिवर्तित करने में बड़ी अहम भूमिका निभाई है| समाज और सामाजिक बुराइयां जब सामाजिक व्यवस्था को पीछे धकेलने की कोशिश करती हैं तो साहित्य, प्रहरी की तरह काम करता है और लोगों में एक नई चेतना विकसित करता है| इन्ही साहित्यों के संगम का नाम है ‘पुस्तक मेला’| पटना पुस्तक मेला भी इसी की एक कड़ी है| बिहार जैसे प्रदेश में पुस्तक मेले में भीड़ का महत्व और बढ़ जाता है क्योंकि अभी भी इन राज्यों की गिनती पिछड़े राज्यों में होती है और शिक्षा का स्तर बहुत निम्न है| मेले की भीड़ हमें सुकून भी पहुंचाती है| लेकिन यह एक बड़ा सवाल है कि कितने लोग सच में किताब की खोज में वहाँ पहुँचते हैं? इस भीड़ में ज्यादातर संख्या युवाओं की है लेकिन अधिकांश् युवा इसे मौज मस्ती और समय बिताने के लिए उपयोग करते हैं| बड़ा अफ़सोस होता है जब युवा साहित्य में अरुचि दिखाते हैं|

इस देश में भगत सिंह जैसे लोग भी हुए जिसने अपने २३ साल के छोटे से उम्र में २३००० से ज्यादा किताबें पढ़ डाली| ये वो दौर था जब अंग्रेजों का अत्याचार अपनी चरम सीमा पर था| और इसी समय रूस में क्रांति संपन्न हुई थी जिसमे साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान था|लेकिन आज के युवाओं में पुस्तकों से बेरुखी क्यों है? क्यों पुस्तक मेले में जाकर भी उनका ध्यान पुस्तकों पर नहीं जाता? ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि क्या आधुनिकता की अंधी दौड में साहित्य कहीं खो गया है? प्रेमचंद, शरतचंद्र, मैक्सिम गोर्की,लेव तालस्तोय जैसे महान लेखकों का महान साहित्य आज के युवाओं को अपनी और आकर्षित क्यों नहीं करता? क्या पुस्तकें छपनी बंद हो जानी चाहिए? ये ऐसे सवाल हैं जो हमें सोचने को मजबूर करते हैं|

ऐसा नहीं है कि दोष सिर्फ युवाओं का है| आज के इस भागदौड भरी जिंदगी में एक लेखक दूसरे लेखक को नहीं पढता, एक आलोचक दूसरे आलोचक को नहीं पढता, क्योंकि उसके पास समय नहीं है| हर तरफ गला काट प्रतियोगिता के बीच साहित्य अपना अस्तित्व खोता हुआ दिखाई दे रहा है| हर लेखक सस्ती लोकप्रियता चाहता है इसलिए वो अपने सांस्कृतिक उसूलों से समझौता करने से भी पीछे नहीं हटता जिसकी कीमत साहित्य को अपने पतन के रूप में चुकानी पड रही हैं|

कभी पुस्तकें ज्ञान अर्जित करने का माध्यम हुआ करती थी लेकिन आज ये अपना स्वरुप इतना बदल चुकी है है कि लोग इसमें भी बाज़ार ढूंढने की कोशिश करते हैं| या यूँ कहें कि बाजारवाद के प्रभाव से पुस्तकें भी अछूती नहीं हैं| दोष बेशक हमारा है क्योंकि इस समाज में सबसे प्रबुद्ध मनुष्य ही है| इस बात से हम संतोष कर सकते हैं कि तमाम दुश्वारियों के बीच पुस्तक प्रेमियों की संख्या अभी भी है| लेकिन क्या हमें साहित्य,संस्कृति और युवाओं की सोच पर फिर से विचार करने की ज़रूरत नहीं है? ताकि किताबें फिर से लोगों को खासकर युवाओं को अपने पास आने को मजबूर करे|

Sunday, December 12, 2010

यह लड़ाई हमें ही लड़नी पड़ेगी

भ्रष्टाचार पर शायद मानव सभ्यता के शुरुआत से ही बहस चलती आ रही है| लेकिन आखिर भ्रष्टाचार है क्या? हममें से ज्यादातर लोग इस बात से ही अनभिग्य हैं| जब भी भ्रष्टाचार को खत्म करने की बात उठती है तब सबसे बड़ा सवाल यही उठता है| हमारा देश गांवों में बसता है| और दुर्भाग्य से शिक्षा का प्रचार प्रसार ग्रामीण क्षेत्रों में कम है| वहाँ रहने वाले ज्यादातर लोग अपने अधिकार और कर्तव्य के प्रति ही जागरूक नहीं हैं| जिम्मेदार वो सरकारें हैं जिनके ऊपर देश को चलाने की ज़िम्मेदारी है| जिन्हें भ्रष्टाचार की परिभाषा नहीं आती वो इसके खिलाफ लड़ाई कैसे लड़ सकते हैं? सरकारी दफ्तरों के बड़े अधिकारी उनके लिए भगवन के समान होते हैं जिन्हें चढ़ावा देना हर भक्त का काम होता है| ऐसी विपरीत परिस्थिति सिर्फ गांव में है ऐसी बात भी नहीं है देश के मंत्री से लेकर संतरी तक सिर्फ अपने स्वार्थ की पूर्ति करने में लगे हुए हैं ऐसे में जागरूकता कहीं पीछे छूट जाती है जिसकी ज़रूरत देश के हर नागरिक को है| लेकिन इसका यह कटाई मतलब नहीं है कि भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सकता|

भ्रष्टाचार को खत्म करने के उपाय सोचने के पहले हमें यह सोचना पड़ेगा आखिर ये होता क्यों है? जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग घुस क्यों लेते हैं और फंड में घोटाला क्यों करते हैं? हम चाहे लाख इंकार करें लेकिन यह बिलकुल सच है कि हम पूंजीवादी व्यवस्था में जी रहे हैं| जहाँ पूंजी ही सबकुछ है| आर्थिक असमानता दूसरा सबसे प्रमुख कारण है| अमीर और अमीर बनने की इक्षा रखता है| वरना उच्च पदों पर बैठे लोगों का नाम घोटालों में नहीं आता|

लोकतंत्र के तीन महत्वपूर्ण अंग हैं कार्यपालिका,विधायिका और न्यायपालिका| और लोकतंत्र की सफलता का यही सबसे बड़ा मूलमंत्र है| लेकिन अगर यही तीनों अंग अपनी जिम्मेदारियों से भटक जाएँ तो फिर उस देश का क्या होगा? भारत में भ्रष्टाचार एक ऐसा मुद्दा है जिसपर हम चाहे जितनी भी बहस कर लें कम ही मालूम पड़ती है| तब सवाल यह है कि क्या हम कभी इस समाजिक बुराई से मुक्त हो सकेंगे? कार्यपालिका और विधायिका तो पहले भी सवालों के घेरे में आ चुकी हैं लेकिन पिछले दिनों न्यायपालिका पर भी भ्रष्टचार में लिप्त होने के आरोप लगे| किसी भी व्यवस्था में जब व्यवस्था खुद सवालों के घेरे में आ जाये तो ये बिलकुल साफ़ हो जाता है कि कहीं न कहीं एक बड़ी खाई है जिसे या तो हम जान बूझकर नज़रंदाज कर रहे हैं या समझ नहीं पा रहे हैं| और इन सबके बीच नुक्सान देश का हो रहा है| राष्ट्रमंडल घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला और 2G स्पेक्ट्रम घोटाला, ये तीन बड़े मामले हाल ही में सामने आये हैं| स्पेक्ट्रुम घोटाले में तो देश के कई बड़े पत्रकारों का भी नाम सामने आया है| तो क्या सचमुच भ्रष्टाचार हमारे समाज में ऐसे घुलमिल गया है कि हम इससे निजात नहीं पा सकते? कदापि नहीं| मैं तो यही कहूँगा- “कौन कहता है आसमां में सुराख हो नहीं सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो”| आज तक हम ‘लड़ाई हमें भी लड़नी पड़ेगी’ की तर्ज़ पर लड़ रहे थे, अब ‘लड़ाई हमें ही लड़नी पड़ेगी’ की तर्ज पर इसकी शुरुआत करनी पड़ेगी| निश्चित ही युवाओं से अपेक्षाएं हैं| लेकिन क्या सिर्फ बड़ी बड़ी बातें कह देने से समाधान निकल जायेगा? ऐसा न तो कभी हुआ है और न ही कभी होगा| जब लोगों को शिक्षित करने की बात आती है तो निश्चित ही सरकार की तरफ ध्यान जाता है| भ्रष्टाचार को खत्म करने के प्रयास भी वहीँ से होना चाहिए लेकिन जब कार्यपालिका और विधायिका खुद सवालों के घेरे में हो तो ये अपेक्षा रखना भी बेईमानी होगा| इसलिए हर एक व्यक्ति जो समाज में थोड़ी भी दिलचस्पी रखता है, को ये ज़िम्मेदारी उठानी पड़ेगी आम लोगों को जागरूक करने का और उन्हें शिक्षित करने का|और एक बार जब लोगों को अपनी जिम्मेदारियों का एहसास हो गया तो फिर भ्रष्टाचार समाप्त होने में बहुत देर नहीं लगेगी| और फिर हम शायद भ्रष्टाचार मुक्त समाज में रह सकेंगे|