Pages

Wednesday, July 6, 2011

भ्रष्टाचार पर छिड़ी बहस मे कहाँ है आम आदमी?


 भ्रष्टाचार पर जितनी बहस और चर्चाएँ हाल के दिनों मे हुई उतनी देश के इतिहास मे शायद कभी नहीं हुई| लोकपाल, जनलोकपाल, सरकार और सिविल सोसायटी के बीच मतभेद इन तमाम मुद्दों पर पिछले चार महीनों से लगातार चर्चा-बहस हो रही है लेकिन सवाल है जिस आम जनता के लिए ये लड़ाई लड़ी जा रही है वो कितना समझ पाया है? और इस दिशा मे ठोस प्रयास क्या वास्तव मे किये जा रहे हैं? आम जनता जब हम कहते हैं तो उसका सीधा मतलब उन लोगों से होता है जो दूर दराज के क्षेत्रों मे, सुदूर गांवों मे दैनिक मजदूरी या किसी तरह अपना और अपने परिवार का पेट पाल रहे हैं| यकीं मानिये तो भ्रष्टाचार से सबसे ज्यादा प्रभावित यही लोग हैं या कहें कि भ्रष्टाचार का सबसे ज्यादा खामियाजा इन्ही लोगों को भुगतना पड़ता है| लेकिन सच तो यह है कि ये बहस दिल्ली और बड़े शहरों के सुविधासंपन्न और परदे के पीछे से भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाले लोगों तक ही सिमित है,आम लोगों तो अभी भी नहीं पता लोकपाल और जन लोकपाल क्या है?  ऐसे मे जड़ से भ्रष्टाचार खत्म करने की और भ्रष्टमुक्त समाज बनाने की जो काल्पनिक रूपरेखाएँ खींची गयी हैं उसके मायने क्या है?
दरअसल विषमताओं और विविधताओं मे बंटा हुआ यह समाज सामाजिक सरोकारों से जुड़े ऐसे तमाम मुद्दों पर ऐसे ही अंतर्विरोध मे फंस जाता है| सियासत, सियासी फायदे और निजी हित के चक्कर मे खुलकर एक पक्ष कोई भी राजनीतिक पार्टी नहीं ले पाती है| सरकार की उदासीनता और गैरजवाबदेह होना इसीकी अगली कड़ी है| ऐसे मे यह साफ है कि लोकतान्त्रिक सरकार अपने कर्तव्यों को भूल चुकी है|   
हालाँकि सच यह भी है कि पिछले बयालीस साल से  जो विधेयक संसद और कार्यालयों की धुल फाँक रहा था अन्ना हजारे ने जब उसकी धुल साफ़ करनी चाही तो बीच मे सरकार ने अड़ंगा लगा दिया| एक तरफ कांग्रेस चीख-चीख कर यह कह रही है कि हम भ्रष्टाचार के विरुद्ध हैं और दूसरी तरफ उसकी सरकार एक ठोस कानून नहीं बनने देना चाह रही क्योंकि उसे लगता है इससे उसके अपने ही हाथ बंध जायंगे लेकिन बहाना संसदीय लोकतंत्र पर खतरे का है| सरकार की इस दोहरी नीति को बेनकाब करने और जनता को उसकी चालों को समझाने की जिम्मेदारी विपक्षी पार्टियों का होता है लेकिन देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा अपने स्वार्थ के कारण बिल पर अपनी राय भी स्पष्ट नहीं कर पायी है| इसलिए  सवाल सिर्फ भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए जनलोकपाल बिल लाने या सरकार और सिविल सोसायटी के बीच असहमति का नही  है सवाल है आम जनता को राहत देने का या कहें कि उसकी समस्याओं को दूर करने का या भ्रष्टमुक्त समाज बनाने का जो हुनर इस देश मे अपनाया जा रहा है, उसमे आम आदमी फिट होता कहाँ है?
 
आशंकाएं सिविल सोसायटी के प्रतिनिधियों से भी हैं| तक़रीबन ४ महीने पहले इसी आंदोलन को राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों से बिल्कुल दूर रखा गया था और यह नजारा पूरी दुनिया ने देखा था कि किस तरह नेताओं को हूट किया जा रहा है लेकिन वही अन्ना हजारे आज राजनीतिक पार्टियों और राजनेताओं की शरण मे देखे जा रहे हैं| सवाल है क्यों? मुझे लगता है जितना समय निहित स्वार्थी पार्टियों पर खर्च किया जा रहा है उतना ही समय आम जनता के बीच खर्च किया जाए तो हम उस उद्देश्य को प्राप्त कर सकते हैं जिसके लिए ये कवायद हो रही है| हर आंदोलन के विरोधी होते ही हैं लेकिन यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम उनको कितना स्पेस देते हैं| इसलिए ज़रूरत इस बात की भी है अपने विरोधियों मे न उलझ कर उस आम जनता को इसका वास्तविक अर्थ समझाया जाये जो अभी तक इससे महरूम है बाकी बहस बाद मे भी हो सकती है|

गिरिजेश कुमार

6 comments:

  1. आप से सहमत हूँ। जब तक किसान, मजदूर और श्रमजीवी आंदोलनों में मुख्य नहीं हैं, आंदोलन की दिशा सही हो नहीं सकती।

    ReplyDelete
  2. Yahi to dukhad hai.... Yeh andolan bhi Aam aadami ki bhagidari se achhoote hi hain....

    ReplyDelete
  3. सार्थक चिंतन....
    यह बात सही है कि आम आदमी के बीच भ्रष्टाचार के मुद्दे को ले जाना चाहिए था......किन्तु यह जिम्मेदारी अकेले अन्ना जी की ही नहीं है बल्कि हम सबों की है | हर जागरूक व्यक्ति को इसे एक मिशन के तौर पर लेना होगा |
    राजनैतिक पार्टियों से विचार विमर्श करना जरूरी भी है और मजबूरी भी क्योंकि बिना संसद की स्वीकृति के लोकपाल बिल का कार्यान्वयन संभव नहीं है | अतः सरकार के साथ-साथ सभी पार्टियों का रुख भी जनता के सामने लाने के लिए अन्ना जी प्रयासरत हैं |

    ReplyDelete
  4. राजनैतिक पार्टियां सभी एक जैसी ही हैं .. आपने सही बात कही है ..अच्छा और जागरूक करता लेख

    ReplyDelete
  5. आपने सही कहा, राजनैतिक पार्टियों को शामिल करने के चक्‍कर में ही यह आंदोलन कमजोर हुआ है।

    ------
    TOP HINDI BLOGS !

    ReplyDelete