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Wednesday, August 11, 2010

आज भी अधूरे हैं सपने

11 अगस्त 1908, यही वो दिन था जब अंग्रेजी साम्राज्य की छाती पर पहला बम फेंकने वाले 19 साल के युवक खुदीराम बोस को फांसी दी गयी थी| यह बम उस गुस्से का प्रतीक था जो अंग्रेजी शासन के प्रति भारतीय युवाओं में व्याप्त था| उनकी शहादत को सौ साल से भी अधिक हो चुके हैं लेकिन उनकी वीरता और देशभक्ति हमें आज भी देश के लिए कुछ कर गुजरने को प्रेरित करते हैं| अत्याचारी किंग्सफोर्ड को मारने के इरादे से फेंके गए बम से किंग्सफोर्ड भले ही बच गया हो लेकिन इसने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव ज़रूर हिला दी थी|

लेकिन हमें अफ़सोस होता है जिन सपनों को आँखों संजोये हुए हमारे देश के महान सपूतों ने कुर्बानी दी वो सपना आज आज़ादी के 64 सालों बाद भी अधूरा है| आज़ादी का ये मतलब कतई नहीं था की जॉन की जगह गोविन्द बैठ जाये| अंग्रेजों के चले जाने के बाद हमारी जुवां ज़रूर आज़ाद हुई है लेकिन सांस के ऊपर अभ भी पहरा है| हम जानना चाहते हैं इस देश के कर्णधारों से कि आखिर उस उन्नीस साल के खुदीराम को क्या ज़रूरत थी अपने प्राणों की आहुति देने की? चंद पैसों और झूठी शोहरत के लालच में जो लोग देश की मर्यादा से खिलवाड़ करते हैं क्या उन्हें खुदीराम जैसे शहीदों से सीख नहीं लेनी चाहिए? उनका सपना था देश के हर लोग खुली हवा में अपनी मर्जी से जी सकें, प्रत्येक देशवासी के चेहरे पर मुसुकुराहट की चाह थी उनकी|

लेकिन आज़ादी के बाद से आजतक हम देख रहे हैं सरकारें सिर्फ लोगों को ठगने का काम कर रही हैं| भ्रष्टाचार, भूख गरीबी से आम लोग आजतक नहीं उबार पाए हैं| शिक्षा ,स्वास्थ्य रोजगार की हालत में बहुत ज्यादा सुधार नहीं हुआ है| देश के लिए खुद को कुर्बान करने वालों के नाम को भी भुला देने की साज़िश रची जा रही है| इसलिए हम कहीं भगत सिंह को नहींपढते, खुदीराम के बारे में नहीं जानते| इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि इन लोगों को अपना आदर्श मानते हुए देश और समाज में हो रहे अन्याय को समाप्त करने के लिए एकजुट होकर प्रयास किया जाये| इन शहीदों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी| वरना इन शहीदों को भुला देने की जो साज़िश रची जा रही उसके शिकार हम भी हो जायेंगे|

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