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Sunday, April 10, 2011

भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आंदोलन और उसके हश्र से ऊपजे सवाल

भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन को जिस तरह से समर्थन और प्रसिद्धि मिली वह अभी भी लोगों की लड़ाई में आस्था और सामाजिक समस्याओं के खिलाफ़ एकजुट होने की प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करती है| जन लोकपाल बिल की मांग को लेकर आमरण अनशन पर बैठे प्रसिद्द सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के आगे सरकार को झुकना पड़ा और सारी मांगे मानने को विवश होना पड़ा| दरअसल मामला भ्रष्टाचार का था और इस घुन से समाज के हर तबके के लोग आहत थे, इसलिए इसे समर्थन लाजिमी था| अन्ना हजारे ने इसे आम जनता की जीत बताया तो कुछ लोगों ने इसे गाँधीवाद और गांधीजी के सिद्धान्तों की जीत कहा| लेकिन एक महत्वपूर्ण सवाल यहाँ यह उठता है कि समझौतों की राजनीति से आम आदमी का कितना भला होगा? और क्या इससे आम आदमी की समस्याएं हल हो सकती हैं? सबसे बड़ा सवाल तो यह है क्या भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा? दरअसल अन्ना ने जो मांग रखी थी उसे तो मान लिया गया लेकिन आर पार की लड़ाई की जो संभावना दिखाई दे रही थी वह एक बार फिर धूमिल हो गई|

इस जंग को आजादी की दूसरी लड़ाई कहा गया और मीडिया का भी इसे अप्रत्याशित समर्थन प्राप्त हुआ| इस लड़ाई को अगर राजनीतिक नजरिये से देखा जाए तो यह सिर्फ़ एक प्रायोजित कार्यक्रम लगता है| यहाँ अन्ना हजारे पर कीचड़ उछालने का मेरा कोई मकसद नहीं है, वे एक ईमानदार, जुझारू और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति हैं, उनकी इज्ज़त हममे से सभी करते हैं, लेकिन जिस लड़ाई की चिंगारी को अन्ना हजारे ने हवा दी उसका हश्र कई सवाल खड़े करता है| राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की वेबसाइट पर दी गई जानकारी के अनुसार अनशन शुरू करने से पहले अन्ना हजारे से प्रधानमन्त्री की १५ मिनट की बातचीत हुई और इससे पहले लोकपाल बिल के मसौदे पर सोनिया गाँधी के साथ भी बैठक हुई थी| एक और बात लोकपाल बिल तैयार करने के लिए जो कमिटी बनी है उसमे सिविल सोसायटी के जो लोग हैं वो सोनिया गाँधी की अध्यक्षता में चलने वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में भी हैं| फिर इस बिल के बनने या ना बनने से क्या फर्क पड़ने वाला है? सोचने वाली बात है|

सत्याग्रह और अहिंसा के गाँधी जी के जिस रास्ते को अपना कर अन्ना हजारे ने समाज से भ्रष्टाचार को मिटाना चाहा उस रास्ते के पैर जंजीरों से इस तरह बंधे हुए हैं कि समाधान का सही रास्ता निकलना नामुमकिन है| इतिहास के पन्नों को अगर बारीकी से पलटें तो यह बात सामने आती है कि समझौतों ने इस देश को गर्त में धकेलने का ही काम किया| आजादी आंदोलन के समय अंग्रेजी सरकार से समझौतों की राजनीति ने देश की आजादी को दशकों पीछे धकेल दिया था| इसलिए असहयोग आंदोलन की वापसी पर इस देश के करोड़ों नौजवानों का विश्वास गाँधी जी के आन्दोलनों से उठ गया था| और भगत सिंह जैसे उर्जावान युवकों ने अपनी तरफ से लड़ाई लड़ने का आह्वान किया था| देश के बंटवारे से लेकर अराजकता और कश्मीर जैसी समस्या इसी समझौतावादी नीतियों का परिणाम है जिसका खामियाजा आने वाली कई पीढियों को मजबूरन भुगतना पड़ेगा| दरअसल इतिहास का हवाला देकर गाँधी जी और उनके प्रयासों या सिद्धांतों पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करना मेरा उद्देश्य नहीं है| लेकिन जिन रास्तों ने समस्याओं को बढ़ावा दिया उन रास्तों पर चलकर देश को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने का सपना देखना कहाँ तक उचित है? क्या भ्रष्टाचार कानून का मसला है?

आज ज़रूरत इस बात की है कि वर्तमान व्यवस्था की खामियों को उजागर कर उसे दूर करने के प्रयास किये जाएँ| जनता को अब आर पार की लड़ाई लड़ने की ज़रूरत है| यह विडंबना ही है लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जनता सड़कों पर भटकने को विवश है और नेता आलिशान बंगलों में रहते हैं इस असमानता को दूर सत्याग्रह के द्वारा नहीं किया जा सकता| इसे लड़कर ही हासिल किया जा सकता है| इसलिए अगर एक सुन्दर, स्वच्छ और भ्रष्टमुक्त समाज का निर्माण करना है तो जनता को सीधी लड़ाई, इस व्यवस्था के तथाकथित रहनुमाओं से लड़नी पड़ेगी|

गिरिजेश कुमार

2 comments:

  1. सटीक और प्रासंगिक लेख... लेकिन एक आशा की किरण ज़रूर मिली है कि यदि आवश्यकता हुई तो शायद आज़ाद, भगत सिंह अशफाक जैसे लोग यहीं से निकालेंगे.

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  2. yahee baat mere man ko math rhee hai ki jab aandolan charam kee or badh rha tha aur sarkaar tootne walee thi to samjhauta kyo kiya gaya
    khair jo bhi ho janata kee takat ka pata chal gaya
    --

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