भारतीय राजनीति का सबसे विकृत चेहरा
दुनिया के नक़्शे में भारत की हैसियत भले ही सबसे बड़े और मजबूत लोकतान्त्रिक देश की हो लेकिन उसके अपने ही देश में लोगों को जीने का आधार देने वाले किसानों की क्या हालत है या कहें कि किसान किस तरह ज़िल्लत की जिंदगी गुजार रहे हैं, और अपनी ही ज़मीन को बचाने की ज़द्दोजहद कर रहे हैं इसको अगर बारीकी से समझना हो तो, नजरें जरा भट्टा पारसौल की तरफ घुमाइए| जन संचार माध्यमों से जो ख़बरें छन कर आ रही हैं वह न सिर्फ़ ह्रदय विदारक है बल्कि सोचने को मजबूर करने के साथ-साथ लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर भी प्रश्नचिन्ह खड़े करता है| मजदुर किसानों के वोट के दम पर उत्तर प्रदेश में शासन सत्ता का सुख भोग रही मायावती सरकार अपने ही राज्य में किसानों के ऊपर गोली चलवाती है और दावा विकास का किया जाता है|
बड़ा सवाल यह है किसानों का भूमि अधिग्रहण कर किसानों को विकास का साझीधार बनाने का जो दावा सरकारें करती हैं उसकी हकीकत क्या है? भट्टा पारसौल में जिस यमुना एक्सप्रेस वे को लेकर हाय तौबा मची हुई है उसके बन जाने से दिल्ली से आगरे की दुरी सिर्फ़ पौने दो घंटे में तय की जा सकेगी यानि विकास का सारा हथकंडा शहरों के बीच की दुरी घटाने पर टिकी हुई हैं और जिसपर वही लोग चलेंगे जिसके पास चमचमाती कारें हैं| यानि आम किसानों के ज़मीन को कब्ज़ाकर प्रदेश की मायावती सरकार जिस विकास की लकीर को अपने नाम पर करना चाहती है उससे आम किसानों को कोई फायदा नहीं होनेवाला उलटे उनके जीने का ज़रिया यानि खेतीयोग्य ज़मीन उनके हाथ से छिनी जा रही है| ऐसे में किसान मर्यादाओं की सारी सीमाएं लांघकर अगर व्यवस्था को खुलेआम चुनौती देता है तो दोष किसका है? ऊपर से प्रशासन यह कहता है ये किसान नहीं गुंडे हैं| मतलब अगर किसान लाठी गोली खाकर भी चुप रहे, विरोध में आवाज न उठाये, भले ही इसमें उसकी जान चली जाये तो वह किसान होंगे नहीं तो गुंडे| इससे शर्मनाक, वाहियात और आधारहीन बात और क्या होगी?
दरअसल पूंजीपतियों की दलाल सरकारों के पास विकास सिर्फ़ एक बहाना है और इसकी आड़ में मुनाफे का बाज़ार तलाशने की कुत्सित कोशिश की जाती है| यमुना एक्सप्रेस वे भी उसी परिकल्पित प्रयास का एक हिस्सा है जिसके किनारे आलिशान होटल्स, रियल स्टेट बिल्डिंग्स और एशो आराम की तमाम सुविधाओं वाला रेस्टोरेंट खोला जायेगा और किसानों के लाशों की राख पर मुनाफे का बाजार तैयार किया जायेगा| हालाँकि सच यह भी है कि सिंगुर हो या नंदीग्राम, नागपुर हो या जैतापुर या भट्टा पारसौल अर्थव्यवस्था की चकाचौंध के बीच शोक उन किसानों को ही मनाना पड़ता ही जिनकी ज़मीन ज़बरदस्ती छिनी जाती है|
यह विडंबना है कि एक तरफ किसान मर रहे हैं, महिलाओं के साथ अन्याय हो रहा है और दूसरी तरफ सियासत के शतरंज में सभी राजनीतिक पार्टी अपने पाशे का इंतज़ार इस उद्देश्य से कर रही है कि शायद इसका फायदा उसे मिल जाये| यानि मरते हुए किसानों की लाश पर घडियाली आंसु बहाने और अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने का हर दांव कोई भी पार्टी गंवाना नहीं चाहती क्योंकि अगले साल उसी यू पी में विधानसभा चुनाव होने हैं और किसानों का यह आंदोलन उन्हें एक संजीवनी बूटी की तरह लग रहा है| नंदीग्राम में 2007 में हुई पुलिस फायरिंग में कितने लोग मारे गए इसका निश्चित आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, घटना का कई दिन बाद बंगाल की खाड़ी में लाशें तैरती हुई मिली थी और कमोबेश वही स्थिति भट्टा पारसौल की भी है जहाँ राख में किसानों के लाश की हड्डियां मिल रही हैं| ज़रा सोचिये इन पांच सालों में दरअसल आखिर बदला क्या? भूमि अधिग्रहण की नीतियों पर गंभीरता से विचार उस समय कर लिया गया होता तो शायद भट्टा पारसौल की घटना दुहराई नहीं जाती| अफ़सोस है कि संसद के दरवाजे से लोकतंत्र का नारा लगाया जाता है और एक लोकतान्त्रिक सरकार किसानों पर गोलियाँ चलवाती है, बांकी पार्टियां तमाशबीन बनी रहती है या अपनी सियासी फायदे ढूंढने की फ़िराक में रहती हैं| बड़ा मुश्किल है इसे समझना|
इसलिये सवाल सिर्फ मायावती या यूपी या ग्रेटर नोयडा में बहते खून का नहीं है । सवाल है कि अर्थव्यवस्था को बडा बनाने का जो हुनर देश में अपनाया जा रहा है उसमें किसान या आम आदमी फिट होता कहा है । और बिना खून बहे भी दस हजार किसान आत्महत्या कर चुके है और 35 लाख घर-बार छोड चुके है । जबकि किसानो की जमीन पर फिलहाल नब्बे लाख सत्तर हजार करोड का मुनाफा रियल इस्टेट और कारपोरेट के लिये खडा हो रहा है ।जिसमे यमुना एक्सप्रेस वे की भागीदारी तो सिर्फ़ 40000 करोड की है|
गिरिजेश कुमार
वास्तव में इन चीजो से निजात तभी मिलेगी जब सही व्यक्ति का सही पद के लिए चयन होगा और मीडिया सत्य और परिलक्षित के बीच में खडा न हो
ReplyDeleteबहुत शर्मनाक है इस तरह की घटनाओं का होना। और उसपर यह राजनीति, कमबख्तों को चुल्लू भर पानी भी नहीं मिलता।
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