क्या देश की सारी समस्याएं भ्रष्टाचार और काले धन पर बाबा रामदेव के आंदोलन तक सीमित हो चुकी है? क्या सरकार और उसके तंत्र का काम सिर्फ़ बाबा के सत्याग्रह के आसपास रह गया है? मंहगाई, बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी, किसानों की आत्महत्या जैसी गंभीर समस्याएं जो समाज में कोढ़ का रूप ले चुकी थी अब खत्म हो गई? अगर नहीं तो पिछले दो- तीन दिनों से मीडिया से ये ख़बरें क्यों गायब हैं? जो अखबार और न्यूज़ चैनल कुछ ही दिन पहले पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि को सरकार का आम लोगों के साथ धोखा बता रही थी वे अब चुप क्यों हैं? अभी कुछ ही दिन पहले बिहार में बिजली की कीमतों में दो गुने से ज्यादा वृद्धि हुई लेकिन किसी अखबार या चैनल ने दिखाने की ज़रूरत नहीं समझी| मीडिया पर सवाल इसलिए क्योंकि मीडिया अपने आप को जनता की आवाज़ कहता है|
दरअसल जिस बाबा रामदेव को देश का सारा मीडिया एक सुर से लाइव कवर कर रहा है उनका एजेंडा ही स्पष्ट नही है| एक तरफ बाबा कैमरे के सामने चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि उन्हें राजनीतिक पद नहीं चाहिए और न ही वह चुनाव लड़ेंगे लेकिन दूसरी तरफ राजनीतिक पार्टियों और उनके कार्यकर्ताओं के लिए रामलीला मैदान में अलग व्यवस्था की गई है| यह हास्यास्पद नही तो और क्या है? क्या देश की जनता में इतनी राजनीतिक जागरूकता है कि वो सत्याग्रह रूपी नौटंकी को समझ सके?
सवाल यह भी है कि जिस सत्याग्रह को बाबा रामदेव व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई कह रहे हैं उसका विकल्प क्या होगा? व्यवस्था परिवर्तन का सीधा मतलब होता है लोकतंत्र में संसदीय प्रणाली की शुरुआत से चली आ रही परम्परा को नकार देना| और अगर देश की जनता इस संसदीय व्यवस्था को नकारती है तो उसके विकल्प के तौर पर कौन सी व्यवस्था लाना चाहते हैं बाबा? क्या उनके पास इससे बेहतर व्यवस्था का कोई विकल्प है जिसमे जनता की भलाई सुनिश्चित हो? अगर नही तो क्या वो जनता के नाम पर जनता को ठग नहीं रहे हैं?
सोचने वाली बात है कि एक लोकतान्त्रिक देश में सरकार और सिविल सोसाइटी को बार-बार आमने सामने आने की ज़रूरत क्यों पड़ती है? जबकि दोनों समाज की बेहतरी के लिए काम करते हैं| इसे समझना होगा क्योंकि अंततः नुक्सान इस देश का है और भोली भाली जनता का है|
ये बात बिलकुल स्पष्ट हो चुकी है कि मीडिया उसी को कवर करेगा जहाँ उसे बाजार नजर आएगा| फिर चाहे बाबा की नौटंकी हो या नेताओं की गुंडागर्दी| नैतिकता, आवाजहीनों की आवाज़, संवेदनशीलता और इन जैसे तमाम शब्द मीडिया की नजरों में अस्तित्व खो चुके हैं|
गिरिजेश कुमार
शुद्ध 100% सहमत हूँ दोस्त आप से.
ReplyDeleteसही खिंचाई की है। भारतीय मीडिया को तो शुरू से ही नौटंकी पसंद रही है।
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कौमार्य के प्रमाण पत्र की ज़रूरत किसे है?
ब्लॉग समीक्षा का 17वाँ एपीसोड।
इतने सालों से भ्रष्टाचार और अप्राद की ख़बरों से अखबार पते रहते थे उससे क्या होता है हम उजुअल पढ़ते है और भूल जाते है ऐसे में अगर एक कोशिश हो रही है (चाहे वह नाकाम ही क्यों न हो ) तो इसमें बाज़ार देखना उचित नही कतई नही. और न ही इसे मज़ाक बनाया जाना चाहिए
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