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Sunday, July 17, 2011

पूंजीपतियों पर हमला हो, तब हिलती है सरकार

 कह सकते हैं कि धमाकों के सिर्फ बारह घंटे बाद ही जिस तरह से मुंबई अपने रंग मे आ गई और लोग सड़कों पर उसी तरह से दौड़ने लगे जैसे कुछ हुआ ही नहीं, वो हमारी जिजीविषा, मुश्किलों से लड़ने की हमारी शक्ति और इंसानियत के हत्यारों के खिलाफ़ हमारी एकजुटता को प्रदर्शित करती है| हम यह भी कह सकते हैं कि चूँकि मुंबई के लिए यह कोई नई बात नहीं थी इसलिए वापस पटरी पर आने में उसे अपेक्षा से भी कम समय लगे, लेकिन क्या हम इतने से ही संतुष्ट हैं?

दरअसल हर आतंकी घटना इतिहास के पन्नों मे अपना अमिट नाम दर्ज कराती है और उन लोगों के लिए न भूलने वाली यादें छोड़ कर जाती है जो ऐसी घटनाओं मे मारे जाते हैं| अफ़सोस तब होता है जब जनता की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध प्रशासनिक तंत्र और सरकारें गैरजिम्मेदाराना रवैया अपनाती हैं| मुंबई हादसों के बाद जनता के इन तथाकथित हिमायती नेताओं का बयान उन पीड़ितों पर नमक छिडकने जैसा है, जो इसके शिकार हुए हैं| लेकिन सवाल है हर आतंकी घटनाओं के बाद या किसी हादसे के बाद जो राजनीतिक समीकरण दरअसल इस देश मे बनाये जाते हैं और सियासी फ़ायदे ढूंढने की जो कुत्सित कोशिश होती है वह एक सभ्य लोकतान्त्रिक समाज के लिए कहाँ तक जायज है? सच मानिए तो लोकतान्त्रिक समाज कहने का भी मन नहीं करता| आखिर ऐसी परिस्थितियाँ क्यों बनी?
 इस देश के नेताओं की राजनीतिक समझ इसी बात से ज़ाहिर होती है कि वो ३१ महीने तक बम विस्फोट न होना अपने सरकार की उपलब्धि मानते हैं तो दूसरे नेता क्षेत्रवाद के तराजू पर इसे तौलते हैं| मीडिया भी इसे मसाला मारकर प्रस्तुत करता है और बजाये आलोचना के उसे अख़बारों के पहले पन्ने पर जगह मिलती है और न्यूज़ चैनलों की पहली खबर बनती है| जो लोग मारे गए या जो घायल हुए उनके प्रति हमदर्दी या संवेदना के दो शब्द किसी ने नहीं कहे| क्योंकि इसमें आम लोग मारे गए थे| उनकी न तो कोई राजनीतिक पहुँच थी और न ही वे पूंजीपति थे| आम जनता की तथाकथित हितैषी सरकारों की दोहरी मानसिकता का अंदाज़ा सिर्फ इस घटना से लगाया जाता है| जब 26 नवंबर 2008 को उसी मुंबई मे आतंकी हमला हुआ था तो राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री समेत केन्द्रीय गृहमंत्री तक को जाना पड़ा था क्योंकि वह हमला पूंजीपतियों की छाती पर हुआ था| और कहना न होगा कि इस देश मे पूंजीपतियों का अघोषित राज है| आतंक के विरोधी हम भी हैं लेकिन आतंकी घटनाओं पर जनता के साथ दोहरे व्यवहार का कतई समर्थन नहीं किया जा सकता| वह भी आम जनता के द्वारा चुनी गई सरकारों द्वारा|

इस घटना के लिए क्या सरकार जिम्मेदार नहीं है? जिस मुंबई मे ए टी एस, मुंबई पुलिस सहित कई आतंक निरोधी एजेंसियां काम करती हैं वहाँ बार-बार हमला करने मे आतंकी सफल कैसे हो जाते हैं? आखिर आतंकी घटनाओं को रोकने मे हमारा सुरक्षा तंत्र नाकाम क्यों रहता है? क्या यह सवाल जायज नहीं है कि बिना किसी घरभेदिये के किसी भी आतंकी वारदातों को अंजाम नहीं दिया जा सकता? तो फिर वह घरभेदिया कौन है? उसे ढूंढने की जिम्मेदारी किसकी है? आतंक के आकाओं को उसके घर मे घुसकर मारने की राजनीतिक इच्छाशक्ति हमारे अंदर क्यों नहीं है? बाहर की तो छोडिये जो हमारे घर के अंदर हैं उन्हें क्यों जिंदा रखा गया है? अफजल गुरु और कसाब अब तक जिन्दा क्यों है? एक बड़ा सवाल यह भी है कि सुरक्षा एजेंसियों और जाँच एजेंसियों के बीच आपसी तालमेल क्यों नही है? इन  सवालों के जवाब आज हर भारतीय तलाश रहा है| लेकिन जवाब के बदले उसे निराशा हाथ लगती है| इस हताशा और निराशा से विचलित होकर आज का युवा वर्ग अगर अनापेक्षित कदम उठा ले तो उसका जिम्मेदार कौन होगा? यह इस देश की विडंबना है कि यहाँ कसाब और अफजल जैसे मानवता के हत्यारों के लिए भी मानवीय संवेदनाएं आड़े आती हैं| लेकिन वही मानवीय संवेदना अकाल मौत के शिकार हुए लोगों के लिए नहीं दिखती|
इसलिए सवाल सिर्फ आतंकी घटनाओं मे मारे जाने वाले लोगों का नहीं है सवाल उस नजरिये का भी है जो सरकारों का आम लोगों के प्रति होता है| देश भ्रष्टाचार, काले धन और सियासी चालों मे कौन कितना ताकतवर है, मे फँसा हुआ है राजनीतिक शुचिता की परवाह किसी को नहीं है| आखिरी सवाल ये कि 11 जुलाई 1993,26 नवंबर 2008,13 जुलाई 2011 के बाद अगली तारीख कौन सी होगी?

गिरिजेश कुमार


7 comments:

  1. सही बात कही है.
    Keep it up दोस्त.बहुत अच्छा और सही लिखते हो.

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    कल 18/07/2011 को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  2. बिल्कुल सही लिखा है..धन्यवाद..

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  3. yathart batata hua saarthak lekh.aap jaise yubaon ko hi aage aana chahiye aur aawaj uthanaa chahiye tabhi kuch sudhaar ki ummid ki jaa sakati hai.badhaai aapko.



    please visit my blog.thanks.

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  4. सटीक एवं सार्थक विश्लेषण करता .....बढ़िया लेख

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  5. बहुत खरी बात कही। पूं‍जीपतियों पर हमला होने पर ही हिलती है सरकार।

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    जीवन का सूत्र...
    NO French Kissing Please!

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