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Thursday, November 17, 2011

बिना सोर्स के आप सड़क पर चलते कीड़े हैं जिन्हें कोई भी राह चलता कुचल देता है



मेरे पड़ोसी शर्मा जी की पत्नी जिंदगी और मौत से जूझ रही है। दो दिन पहले उन्हें गंभीर हृदयाघात हुआ था। शर्मा जी के सामने एक तरफ़ अपनी पत्नी की ज़िन्दगी है तो दूसरी तरफ़ मँहगे ईलाज के लिए पैसे के बंदोबस्त की चुनौती। आँखों से आँसुओं की अविरल बह रही धारा किसी भी इंसान का दिल चीर कर रख देता है। अपनों का साथ तो है लेकिन विवशता उनकी भी है। डॉक्टरों ने एम्स रेफ़र किया है। इन सबके बीच चिंता सिर्फ़ पैसों की ही नहीं है,चिंता उन सोर्सों की भी है जिससे ईलाज समय पर शुरू हो सके। ये सोर्स आखिर कैसे मिले? मंत्रियों, विधायकों से मदद की गुहार ताकि ज़िंदगी बचायी जा सके। ग़म, मज़बूरी और लाचारी के ऐसे हालात में एक आदमी क्या करे?
यह कहानी उस शर्मा जी की है जो सरकार से ईमानदारी और मेहनत की कमाई का वेतन लेते हैं। लेकिन इन्ही जनता के टैक्सों पर पल रही सरकार के पास अस्पतालों में मँहगे ईलाज के लिए पर्याप्त सुविधाएँ नहीं हैं। और हैं भी तो वह चंद मुट्ठीभर सुविधासंपन लोगों की रखैल बनकर रह गई हैं। इसे विडंबना ही कहेंगे कि एक तरफ़ करोड़ों रूपये काले धन के रूप में विदेशी बैंकों की शोभा बढ़ा रहे हैं तो दूसरी तरफ किसी के पास एयर एम्बुलेंस के लिए पैसे नहीं है। यह स्थिति हर उस व्यक्ति की है जो मध्यमवर्गीय परिवार से आता है। यहां हर चीज़ के लिए सोर्स चाहिए। नौकरी के लिए सोर्स, इलाज के लिए सोर्स, सरकारी दफ्तरों में काम कराने के लिए सोर्स। बिना सोर्स के आप सड़क पर चलते कीड़े हैं जिन्हें कोई भी राह चलता कुचल देता है। क्षमता, बुद्धिमता, ज्ञान, अर्हता सब सेकेंडरी चीजें हो चुकी हैं। सवाल है आखिर ऐसी व्यवस्था किसने बनायीं जो इंसान के जीने के लायक ही नहीं है?
माना की चमचमाती सड़कें,उसपर फर्राटेदार दौड़ती मँहगी कारें और आसमान छूती इमारतें किसी भी देश के विकसित और समृद्ध होने की परिचायक हैं लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य और भोजन जैसी मूलभूत और बुनियादी ज़रूरतों का लाभ हर ज़रूरतमंद तक पहुँचे इसकी ज़िम्मेदारी भी सुनिश्चित होनी चाहिए। फिर ऐसे भारत निर्माण के दावों के दरअसल मायने क्या हैं जहाँ किसी की ज़िंदगी कागज़ के चंद नोटों के अभाव में नहीं बचाई जा सके? और पैसों का बंदोबस्त हो भी जाये तो सरकारी अस्पतालों में पर्याप्त सुविधाएँ नहीं मिलती क्योंकि वह किसी मंत्री, विधायक, सांसद या अफसर का रिश्तेदार नहीं है। निजी अस्पताल उसके ख्वाब से भी बाहर की चीज़ है।
विवशताओं और लाचारियों के ऐसे हालात में ही इंसान गलत कदम उठाने को मजबूर होता है। भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी की नींव भी कहीं न कहीं यहीं से जन्म लेती है। लेकिन बड़ा सवाल यही है कि पूरी तरह से पूँजीवादी सोच और उपभोक्तावादी संस्कृति में कैद यह समाज और समाजिक व्यवस्था क्या मुनाफे पर आधारित अपनी मानसिकता को बदलकर मनुष्य मात्र के हित की बात सोचेगा? अगर हाँ तो कब तक? अगर नहीं तो क्यों नहीं?
गिरिजेश कुमार

4 comments:

  1. बहुत ही दुखद सत्य है ये आज का । आपकी बात से पूरी तरह सहमत । जो देश आज तक देशवासियों को समुचित सुलभ चिकित्सा व्यवस्था नहीं दे सका , वो कल की महाशक्ति बनने का दावा कर रहा है जाने कैसे ?

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  2. बहुत सटीक प्रश्न उठाता लेख...

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  3. बहुत ही दुखद सत्य है ये आज का ।

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  4. बेहतरीन प्रस्तुति। सही कहा है
    शानदार अभिव्यक्ति,

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