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Friday, September 17, 2010

दाँव पर ज़िंदगी

इंसान को सबसे ज्यादा अपनी ज़िंदगी से प्यार होता है| लेकिन उसी ज़िंदगी को दाँव पर लगाने का फैसला जब कोई करता है तो निश्चित ही उसके पीछे हताशा, निराशा, और अवसाद का वो काला मंजर होता है जिसकी शायद हम कल्पना भी नहीं कर सकते| १५ सितम्बर को पटना में नगर निगम कर्मचारी दयानंद के आत्मदाह का फैसला भी इसी भयावहता को उजागर करता है| जिसमे वह ५० फीसदी जल गया था और अभी अस्पताल में मौत से जंग लड़ रहा है| लेकिन क्या सरकार इस सवाल का ज़वाब देगी कि कर्मचारियों को वेतन क्यों नहीं दिया गया था? क्या कभी बड़े अधिकारियों का वेतन बांकी रखा जाता है? क्या नियम और कानूनों का पेंच सिर्फ़ निचले स्तर के कर्मचारियों के लिए होता है?

जब भी कोई मानवता को झकझोर देने वाली घटना घटती है तो इंसान का रूह काँप उठता है| और इंसानियत उससे एक ही सवाल पूछती है आखिर ऐसा कब तक? कल हुई ये घटना कुछ दिनों के लिए लोगों के दिमाग में रहेगी लेकिन फिर सबकुछ वैसे ही चलता रहेगा| कोई भी इसके तह तक जाने की कोशिश नहीं करेगा| हमें अफ़सोस तब होता है जब सरकारी उदासीनता का खामियाजा गरीब और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को भुगतना पड़ता है| किस लोकतंत्र की दुहाई देते हैं हम जहाँ खून पसीने की कमाई हासिल करने के लिए भी खून जलाना पड़ता है?

क्या एक लोकतांत्रिक देश में लोकतांत्रिक पद्धत्ति से चुनी हुई सरकार और उसके तंत्र के इस तरह के गैरज़िम्मेदाराना हरकत को बर्दाश्त किया जा सकता है, जिसमे कर्मचारियों को वेतन न दिया जाये? कदापि नहीं| इसकी नैतिक ज़िम्मेदारी सरकार को लेनी होगी| ताकि फिर कोई दयानंद अपनी ज़िंदगी दाँव पर लगाने के लिए बाध्य न हो|

Thursday, September 16, 2010

क्या कश्मीर कभी शांत होगा?

क्या कश्मीर कभी शांत होगा? क्या कश्मीर के अमनपसंद लोग कभी अमन चैन से रह सकेंगे? ये सवाल आज हममे से हर हिन्दुस्तानी जानना चाहता है| चंद असामाजिक प्रवृत्ति के लोग नहीं चाहते की कश्मीर में शान्ति कायम हो| अहंकार और अधिकार की लड़ाई में आम इंसान कहीं खो जा रहा है| अफसोस इस बात का है कि देश की राजनीतिक पार्टियां इस मुद्दे को इस्तेमाल कर रही हैं|

पिछले २-३ महीनों से कश्मीर नफरत की आग में जल रहा है| लोग एक दूसरे को मरने मारने पर उतारू हैं| ताज़ा घटनाक्रम आपसी सौहार्द्र और भाईचारे का प्रतीक पर्व ईद के दिन शुरू हुआ| जहाँ लोग ईद की मुबारकवाद दे रहे थे वहीँ कुछ दुरी पर हिंसा की होली खेली जा रही थी| एक तरफ आतंकी इस शहर की सुंदरता में ज़हर घोल रहे हैं वहीँ दूसरी तरफ हिंसा ने शहर को बर्बाद कर दिया है| शान्ति के तमाम प्रयासों के बावजूद आखिर वहाँ शान्ति स्थापित क्यों नहीं हो रही है? यह हमारे लिए गंभीर चिंता का विषय है|

कश्मीर को बनाने वाले ने कभी कश्मीर की इस स्थिति की कल्पना नही की होगी| और शायद हमारी लापरवाही न होती तो आज ये हालत भी न होती| इसके लिए केंद्र और राज्य सरकार दोनों बराबर के जिम्मेदार हैं| इस परिस्थिति में हम सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि पृथ्वी का स्वर्ग कहा जाने वाला प्रदेश नर्क में कैसे तब्द्देल हो गया है| आज हालात यहाँ तक पहुँच गई है कि लोग माननीय प्रधानमन्त्री के अपील को भी नज़रंदाज़ कर रहे हैं| फिर लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों कि तो यूँ ही हत्या हो गई| यह बात कश्मीर के उन लोगों को क्यों समझ में नहीं आ रही जो हिंसा के रास्ते बेवजह पूरे देश का ध्यान असल मुद्दे से भटकाना चाहते हैं|

जब जब कश्मीर में हालत बिगड़े उस मुद्दे को लेकर राजनीतिक रोटी सेंकने में कोई भी पार्टी पीछे नहीं रही| आम लोगों की भावनाओं को भड़काने में ये पार्टियां भी ज़िम्मेदार हैं| यह समय हालांकि ऐसे सवालों का नहीं है लेकिन जब समस्याएँ अपनी सीमाओं को लांघकर मनुष्य की सत्ता के लिए चुनौती बन जाये तो फिर आखिर रास्ता क्या बचता है?

इसलिए अब ज़रूरत इस बात की है कि इस समस्या का एक ठोस समाधान निकाला जाये| इसके लिए राजनीतिक लाभ को ठुकराना होगा जो देश की सत्तालोलुप पार्टियां कभी स्वीकार नहीं करेंगी| इसलिए इस समस्या का समाधान की ज़िम्मेदारी कश्मीर के लोगों को ही उठानी पड़ेगी|

Wednesday, September 15, 2010

हिंदी क्यों है उपेक्षित?

भारतीय इतिहास के हर पन्ने को अगर फिर से पलटाया जाये तो हर साल ‘हिंदी दिवस’ के अवसर पर हिंदी को राजभाषा बनाने के संकल्प मिल जायेंगे| हिंदी के विकास की ज़रूरत पर बड़े बड़े वक्तव्य मिल जायेंगे|इसपर आयोजित सेमिनारों की लंबी फेहरिस्त मिल जायगी| लेकिन हर बार परिणाम सिफ़र ही रहता है| आखिर चूक कहाँ रह जाती है?

हमारी मातृभाषा हिंदी है लेकिन अफ़सोस कि यह अपने ही देश में अपने पहचान के लिए तरस रही है| जिस देश की मातृभाषा ही हिंदी हो उस देश में हिंदी दिवस मनाने की जरूरत क्यों पड़ गयी? ज़वाब साफ़ है हमने खुद को इतना विकसित समझ लिया कि गिरेबान में झाँकने की कोशिश ही नहीं की| आज स्थिति यह है कि जिन लोगों पर हिंदी को बढ़ावा देने की ज़िम्मेदारी थी उन्हें खुद हिंदी बोलने में शर्म आती है| आखिर जिम्मेदार कौन है? हमारी मानसिकता में अंग्रेजी इस तरह से घुल गई है कि हम अपनी मातृभाषा को भी दरकिनार कर देते हैं| यह सच है कि हमें हिंदी के साथ साथ दूसरी भाषाओँ कि भी जानकारी रखनी चाहिए लेकिन क्या इसके लिए हम मातृभाषा से मजाक कर सकते हैं?

आज देश की संसद से लेकर विधानसभाओं में भी अंग्रेजी ही बोली जाती है| हिंदी में शपथ लेने पर दुर्व्यवहार किया जाता है| इस हालत में हिंदी को बढ़ावा देने के लिए संकल्प की ख़बरें पढकर हास्यास्पद लगता है| अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या सच में कभी हिंदी अपना सम्मान पा सकेगी? इसके लिए ज़रुरी है कि हम खुद में बदलाव लायें| और अपनी मातृभाषा की रक्षा के लिए आगे आयें| तभी हम सफल हो पाएंगे|

Sunday, September 12, 2010

नीतीश सरकार के ५ साल: उपलब्धियाँ तो हैं लेकिन नाकामी भी है

पांच साल पहले बदलाव की जिस आस को लिए बिहार के लोगों ने सत्ता परिवर्तन किया, बात जब उसके मूल्यांकन की आती है तो निश्चित ही हम इसे महसूस करने पर विवश होते हैं| शुरुआत से ही बिहार की गिनती पिछड़े राज्यों में होती रही है| हालाँकि उद्योग और खनिज के मामले में बिहार सबसे धनी राज्य रहा है| झारखण्ड के अलग होने से थोडा असर ज़रूर पड़ा है| लेकिन सबसे दोषी यहाँ की सरकार रही है| १५ सालों तक राजद की सरकार ने इस प्रदेश को बैकफूट पर ला दिया था| जब सवाल विकास का उठता है तो हम थोडा ठहर जाते हैं|

इसमें कोई संदेह नहीं है कि पिछले पांच सालों में बिहार ने तरक्की की उन उचाईयों को छुआ है जिसे छूना आसान न था| शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार में अभूतपूर्व उपलब्धि हासिल हुई है| मुख्यमंत्री पोशाक योजना, और साईकिल योजना ने न सिर्फ सूबे के लड़कियों में आत्मविश्वास की भावना जगाई है बल्कि इसका परिणाम भी नज़र आने लगा है| प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से लेकर राज्य के अस्पतालों की स्थिति सुधरी है| पहले जहाँ सरकारी अस्पतालों से लोगों का विश्वास उठ चुका था वहीँ अब उनका रुझान इस ओर होने लगा है| रोज़गार की दिशा में भी इस सरकार ने काफी महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की है|

सड़कों की हालत ठीक हुई है, इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित हुआ है| कानून व्यवस्था की हालत में सुधार हुआ है| आर्थिक विकास दर देश में सबसे अधिक विकास दर वाला राज्य गुजरात को भी पार कर गया है| कुल मिलाकर अगर देखा जाये तो विकास हुआ है इसे कोई नकार नहीं सकता| और सबसे बड़ी बात यह है कि सरकार सजग है| अपने कार्यकाल के दौरान मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि सरकार ने अपनी ज़िम्मेदारी से पीछा छुड़ा लिया|

लेकिन इस सच्चाई से हम इनकार नहीं कर सकते कि इस सरकार ने उपलब्धि हासिल की तो इसकी कुछ नाकामियां भी है| गुजरात के द्वारा बाढ़ पीडितों को दिया गया पैसा वापस लौटाना सबसे बड़ी असफलता है इस सरकार की| यहाँ श्री नीतीश कुमार राजनीति के गंदे विचार और छिछोलेपन के फेर में फंस गए| और इन सबके बीच आम आदमी कहीं गुम हो जा रहा है| गावों में रहने वाले लोग, जो आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं आज भी गरीबी और अभाव में जीने को विवश हैं| भ्रष्टाचार जैसी समस्या से लोग अभी भी परेशान हैं| उद्योग जो सरकारी उदासीनता का शिकार हैं उन्हें फिर से चालू करने की ज़रूरत है| अफसरशाही पर लगाम लगाने की ज़रूरत है| बच्चे स्कूल जा ज़रूर रहे हैं लेकिन हम अपने आप को सफल तभी मान सकते जब खुद उनकी प्रतिभा निखर कर सामने आएगी| सच में बच्चे ज्ञान हासिल करेंगे| ये ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता|

कोई भी सरकार या व्यवस्था परफेक्ट नहीं होती| इसे परफेक्ट बनाना पड़ता है| हमारा प्रयास बहुत मायने रखता है| जो लोग सवाल उठाते हैं उनसे मैं एक सवाल पूछना चाहूँगा कि समस्याएँ कब नहीं थी? जब रामराज्य था तब भी असामाजिक प्रवृत्ति के लोग थे, अन्यथा सीता जी को वनवास नहीं जाना पड़ता| कृष्ण भगवान जब साक्षात् पृथ्वी पर मौजूद थे तब भी दुर्योधन जैसे कुछ लोग सच्चाई को मानने से इनकार करते थे| इसलिए समाज जब तक है समस्याएँ तब तक रहेंगी| ज़रूरत है इसका ज्यादा से ज्यादा समाधान निकालने की| कहते हैं संसदीय लोकतंत्र में विपक्षी पार्टियां भी सरकार के ही अंग होती हैं| लेकिन अफ़सोस तब होता है जब विपक्षी पार्टियां गन्दी राजनीति कर आम लोगों में जहर भरने का काम करती है| सच को दरकिनार कर सिर्फ अपना उल्लू सीधा करना ही वर्तमान लोकतंत्र का मतलब रह गया है| इसलिए ज़रूरत इस बात की है हम सही चीज़ों को आत्मसात करते हुए वक्त की नजाकत को समझे और अपने लोकतांत्रिक मूल्यों का पालन करते हुए अपने मताधिकार का सही प्रयोग करें| नीतीश सरकार पर भरोसा ज़रूर किया जा सकता है|

Tuesday, August 31, 2010

दर्द से कराह उठा दिल

पिछले दिनों बिहार के लक्खीसराय जिले में हुए पुलिस-नक्सली और उसमे ज़वानों की मौत की खबर सुनकर एक बार फिर दिल दर्द से कराह उठा| विचारधारा के नाम पर निर्दोष ज़वानों की हत्या एक तरफ जहाँ नक्सलियों के उद्देश्य पर प्रश्नचिन्ह लगाती है वहीँ किसी भी सभ्य समाज में इसे जायज़ नहीं ठहराया जा सकता| वहीँ हम यह नहीं समझ पाते कि सरकार और तमाम अमनपसंद लोगों के लाख प्रयास के बावजूद आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़े खतरे पर काबू क्यों नहीं हो रहा है? सफल क्रांति कर पूरे दुनिया को भौंचक्क कर देने वाले महान लेनिन और मार्क्स जैसे लोगों ने क्या कभी निर्दोषों की हत्या को जायज़ ठहराया था? जिन लोगों की विचारधारा को हथियार मानकर ये लोग लड़ रहे हैं उसका औचित्य क्या है?

चंद घंटो की लड़ाई और कई लाशें फिर वही चीत्कार की करुण दास्ताँ| हर नक्सली हमले के बाद की यही स्थिति होती है जिसको देखकर किसी भी व्यक्ति का ह्रदय विचलित हो उठता है|

नक्सलियों के इस करतूत से न सिर्फ हम आक्रोशित हैं बल्कि उद्वेलित भी हैं और साथ ही साथ दिग्भ्रमित हैं| आखिर कब तक निर्दोष जवान मौत को गले लगते रहेंगे? जल, जंगल और ज़मीन नहीं छीनने देंगे का नारा देने वाले नक्सली जिंदगी और ज़वान छीनने पर उतारू हैं| इस दुनिया का हर धर्मग्रन्थ का सार एक ही है, हम इंसान हैं और इंसानियत की रक्षा हमारा धर्म है| लेकिन नक्सली इस इंसानियत के धर्म को ही पैरों तले रोंदने का काम कर रहे हैं|

यह दीगर बात है कि यहाँ समस्याएं हैं, और व्यवस्था परिवर्तन उसका हल हो सकता है लेकिन हमारा रास्ता क्या हिंसा का होना चाहिए? यह आंदोलन निश्चित ही अन्याय के खिलाफ शुरू की गई थी लेकिन आज इसका उद्देश्य सिर्फ अशांति फैलना रह गया है| इसको आगे ले जाने की जिम्मेवारी उनकी थी जिनका विचारों से गहरा नाता था| लेकिन अफ़सोस कि लोगों ने निजी स्वार्थ को ज्यादा तरजीह दी|

आज हम उस हालात में पहुँच गए हैं जहाँ इस समस्या का हल निकालना ज़रुरी हो गया है| इसके लिए प्रशासनिक तंत्र को निहायत ही मज़बूत भूमिका नभानी होगी| हर बार सवाल संसाधनों की कमी का उठता है जिसके बिना शायद हम ये लड़ाई नहीं लड़ सकते| इसलिए ज़रूरत इस बात कि है विचारधारा की आड़ में निर्दोष जवानों की हत्या पर रोक लगनी चाहिए| क्योंकि वो ज़वान भी परिवार और पेट के लिए बन्दूक उठाने पर मजबूर हैं| इस हिंसा और मारकाट की लड़ाई पर तत्काल रोक लगनी चाहिए ताकि मानव सभ्यता पर फिर काला धब्बा न लगने पाए|