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Monday, January 10, 2011

कर्तव्य के निर्वहन पर जेल: चुप क्यों हैं पत्रकार संघठन?

बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने अभी-अभी ऐतिहासिक जनमत हासिल किया है| इस ऐतिहासिक जनमत के पीछे लोगों की बदलती सोच को कारण माना गया| यह बात सच भी है लेकिन शायद हम यह भूल गए इस सरकार में भी उसी पूंजीवादी व्यवस्था के रहनुमाएं हैं जिसने आम आदमी की जिंदगी नर्क बना दिया है| और अपने आप को जनता का सबसे बड़ा हितैषी बताने वाला मीडिया भी पूंजीवाद, पूंजीपति और उसके इशारों पर नाचने वाली सरकारों की पिछलग्गू बने रहना चाहता है| इसलिए जब नवलेश पाठक जैसा छोटा पत्रकार अन्याय के खिलाफ अपनी कलम का इस्तेमाल करता है तो उसे सलाखें मिलती हैं| उसपर आई पी सी की धारा ३०२ और १२०बी लगाया जाता है| और कोई भी पत्रकार या पत्रकार संगठन इसके खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोलता|

नवलेश पाठक का जुर्म सिर्फ इतना था कि उसने अपने अखबार में सत्ताधारी पार्टी के विधायक राजकिशोर केसरी की काली करतूतों को छापा था| उस विधायक के असली चेहरे को समाज के सामने लाया था| उसका कसूर यह भी था उसने एक महिला द्वारा यौन शोषण के आरोप को अपने अखबार में जगह दी थी| लेकिन पैसे और सत्ते के बल पर जब इस केस को दबाया गया तो इन्साफ की खातिर,प्रतिशोध की अग्नि में उसने उस विधायक की हत्या कर दी|

नवलेश पाठक और उसकी पत्नी को जिस ढंग से गिरफ्तार किया गया वह भी सवालों के घेरे में आता है| आधी रात को कुछ लोग सादे लिबास में घर घुसते हैं अपने को पुलिस बताकर दोनों पति- पत्नी को उठाकर शहर की ओर आते हैं|आधे रास्ते में पत्नी को दूसरी गाड़ी में बिठाकर ले जाया जाता है और पति को पूछताछ के लिए किसी अज्ञात स्थान पर ले जाया जाता है| सुनने में ये कहानी किसी फिल्म की लगती है लेकिन बिहार पुलिस ने ऐसा ही किया| सवाल उठता है क्यों? क्या नवलेश पाठक कोई पेशेवर अपराधी थे? क्या सच लिखने की सजा ये है कि उसके ऊपर हत्या का मुकदमा चले? मैं मानता हूँ कि रूपम पाठक ने सभ्य समाज के उसूलों के खिलाफ कदम उठाया लेकिन उस पत्रकार का क्या कसूर? वो तो सच लिखने की ही कमाई खाता है| फिर उसपर हत्या का मुकदमा क्यों?

हम यह सोचकर संतोष कर सकते हैं कि रूपम पाठक ने अपने ऊपर हुए अत्याचार के विरोध में एक चिंगारी जलाई और आज तमाम महिला संगठन उसके साथ खड़े हैं| लेकिन पत्रकार नवलेश पाठक के लिए कोई भी पत्रकार या पत्रकार संगठन आगे नही आया| और न ही एक शब्द बोलने की हिम्मत दिखाई| क्योंकि नवलेश पाठक एक छोटे से कस्बे में अखबार निकालते था| उसके पास पूंजी की ताकत नहीं थी और न ही उसका कोई ब्रांड था| टाटा और बिडला जैसे पूंजीपतियों का हाथ भी नही था| इसलिए देश का एक भी बड़ा अखबार या न्यूज़ चैनल उसके समर्थन में नहीं आया| लेकिन उसी बेशर्म, जनता के तथाकथित हितैषी मीडिया के तमाम बड़े अख़बारों और न्यूज़ चैनलों ने इस खबर पर टी आर पी बटोरने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी जब ६ महीने पहले विधायक के अत्याचार की ख़बरें छपी थी| लेकिन आज जब उसी खबर को छापने वाले के साथ गैरकानूनी कार्रवाई की गई तो कोई अखबार सामने नही आया| पूंजी के इस खेल में आम आदमी की तो कोई कीमत नही ही थी लेकिन सच के लिए लड़ने वालों के लिए सांत्वना के दो शब्द न बोलने वालों में पत्रकार भी हैं यह आज समझ में आया|

हमें आश्चर्य होता है कि जब वीर संघवी, बरखा दत्त, प्रभु चावला जैसे बड़े पत्रकार फंसते हैं, जिसके ऊपर सच छुपाने के आरोप लगे तो वह राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन जाता है और तमाम मीडिया संघठन आरोपियों को बचाने के लिए आगे आता है लेकिन एक छोटे पत्रकार को सच छापने के लिए सलाखों के पीछे जाना पड़ता है| सवाल उठता है क्या पत्रकारिता का मतलब सिर्फ चाटुकारिता रह गई है? क्या सरकार और उसके तंत्र की दलाली का मतलब ही पत्रकारिता हो गया है? और सबसे बड़ा सवाल कि चुप क्यों हैं पत्रकार संगठन? क्या सिर्फ इसलिए कि वो एक छोटा अखबार निकलते थे?

शयद हम भूल रहे हैं कि आज़ादी की लड़ाई हमने छोटे छोटे अख़बारों को निकालकर ही लड़ी थी? और लोगों को जागृत करने में इन छोटे अख़बारों की बड़ी भूमिका रही है लेकिन अफ़सोस की आज पत्रकारिता के मायने बदल गए हैं|

इतिहास गवाह है सच्चाई के खातिर कुछ चंद लोगों ने ही आवाज़ उठाई| भले ही उनकी आवाज़ को ताकत के बल दबा दिया गया लेकिन आजतक मिटाया नहीं जा सका| ये एक चिंगारी है जो भडके तो शोले का रूप ले सकती है फिर चाहे शासक कितना भी ताकतवर हो उसे दबा नहीं सकता| मीडिया को भी चाहिए कि वो आत्मालोचना करे| अपने फ़र्ज़ और कर्तव्य की सीमाएं फिक्स करे| तभी उसकी विश्वसनीयता बनी रह सकती है|

गिरिजेश कुमार

मो.09631829853

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