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Sunday, February 12, 2012

डर्टी 'सिल्क' है या सिस्टम?


रूबी सिंह
फिल्म ‘डर्टी पिक्चर’ की ‘सिल्क’ को लोग डर्टी मानते हैं। हालाँकि सिल्क बाजारी है या विचारी, इसमें से किसी निष्कर्ष पर पहुँचना आसान नहीं है। लेकिन गंभीर और बड़ा सवाल यह है कि ‘सिल्क’ डर्टी है या सिस्टम? क्योंकि इस सिस्टम में सफलता के लिए या तो समझौता करना होता है या आत्महत्या! दो दिन पहले भोजपुरी फिल्मों की मशहूर नायिका रूबी सिंह ने मुंबई स्थित अपने फ़्लैट में आत्महत्या कर ली। कारणों के तफ्तीश की ज़िम्मेदारी पुलिस की है लेकिन इसके सामाजिक सन्दर्भ पर चर्चा कौन करेगा? अफ़सोस है कि हर ऐसी घटना मीडिया के लिए खबर बनती है और समाज के लिए विमर्श का विषय। लेकिन इस विमर्श से ठोस हल निकालने की कोशिश नहीं होती, खानापूर्ति करना ही इसका उद्देश्य होता है। बताया जाता है कि रूबी सिंह पिछले कुछ दिनों से डिप्रेशन में थी। काम न मिलना भी उसकी एक वजह बताई जा रही है। लेकिन आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम उठाने के पीछे छिपे रहस्य पर से पर्दा उठने में शायद वक्त लगे लेकिन निहितार्थों का चर्चा से गायब होना चौंकाता है।
नफीसा, कुलजीत रंधावा, विवेका बाबाजी, रूबी सिंह, इस लिस्ट में नामों की फेहरिस्त काफी लम्बी है। ग्लैमर की चकाचौंध में फैशन की दुनिया का स्याह सच एक बार नहीं कई बार दुनिया के सामने आ चुका है। इसे गलत माननेवालों की भी कमी नहीं है लेकिन स्थित ढाक के तीन पात वाली कहावत से आगे नहीं बढ़ती। सवाल है चमकती दुनिया के काले सच से जबकि हम सब वाकिफ हैं फिर भी इस दुनिया से काले परदे हटाने के प्रयास क्यों नहीं होते? ज़ाहिर है बाजार इसमें बड़ी भूमिका अदा करता है। रूबी सिंह के आत्महत्या की प्रारम्भिक वजहें भी इन्ही सब चीज़ों की ओर ईशारा करती हैं।
गाँव की गलियों से होकर रौशनी से नहाये हुए शहर में अपने आप को स्टार के रूप में देखने की ख्वाहिश रखने वाले लोगों की कमी नहीं है। वास्तविक सच को जाने बिना परदे पर बनावटी मुस्कान बिखेरने वाले सितारों की ज़िन्दगी में खुद को शामिल करना भी ऐसी मौत का कारण होता है। सपने टूटते हैं, टूटने के लिए ही होते हैं शायद। आखिर आत्मविश्वास की जमीन जब हिलने लगे तो ऐसे हालात में वो व्यक्ति क्या करे?
पैसे की चाहत और उच्च जीवन स्तर जीने की आकांक्षा ने लोगों के जमीर को भी बेचने का काम किया है। दिखावे में फँसे समाज के एक तरफ़ ज़िन्दगी से जंग है तो दूसरी तरफ़ झूठे मान सम्मान की फ़िक्र। मकड़े के जाल की तरह उलझी इस व्यवस्था में एक इंसान का जीना वैसे ही मुमकिन नहीं था, गला काट प्रतियोगिता, हमेशा आगे रहने की होड़ और एक झटके में दुनिया को आकर्षित कर लेने की प्रवृत्ति ने इसे और भी मुश्किल बना दिया है। एक तरफ़ देश भूख, गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार से जूझ रहा है तो दूसरी तरफ़ समाज में निराशा है, हताशा है, भविष्य का संकट है। अवसाद, मानसिक तनाव इत्यादि भी हैं।  इन सबकी वजहें चाहे जो भी हो नुकसान पूरे समाज को हो रहा है।  
देश और राज्य की सरकारों को सिर्फ़ घोटाले, कुर्सी और अपनी सत्ता बचाने में इंटरेस्ट है। मनुष्य के आत्मबल को निर्मित करने और उसे विपरीत परिस्थितियों में भी तटस्थ रहने की प्रेरणा देना कहीं किसी भी सिलेबस में शामिल नहीं है। खुद से जूझते इंसान के लिए यह और भी कठिन है। सवाल है ऐसी दमघोंटू परिस्थिति आखिर कब तक रहेगी? रूबी सिंह अंतिम नाम होगा ऐसी अपेक्षा रखना भी बेवकूफी है।
गिरिजेश कुमार

5 comments:

  1. The Persons who lost the battle r near about 99% becz single find top.if all lost persons takedecision to sucide after battle,winner would be valuless...
    Therefore such type of people's steps r negative signs for our society...

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  2. यह 'सिस्टम' तो खराब है ही और झूठे ग्लैमर का अंधानुकरण करने वाले भी दोषी हैं!

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  3. बहत सार्थक और विचारणीय आलेख..

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  4. गिरिजेश भाई, डर्टी तो यह सिस्‍टम ही है...

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